डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार राकेश शर्मा ने विस्तार से अपने क्राउडफंडिंग कैंपेन के बारे में बताया जो वह पिछले एक दशक में जुटायी गयी फुटेज की आर्काइविंग प्रक्रिया की फंडिंग के लिए चला रहे हैं। यह आर्काइविंग बेहद ज़रूरी है क्योंकि उन्होंने अधिकांश फिल्मांकन ऐसे टेपों पर किया है जो समय के साथ खराब होने लगते हैं। यह अभियान बेहद ज़रूरी होने की एक वजह यह है कि गोधरा दंगों पर आधारित उनकी पिछली फिल्म ‘फ़ाइनल सॉल्यूशन’ अब तक भारत में बनी सर्वाधिक प्रभावशाली सामाजिक-राजनीतिक डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में से एक है।
यह फिल्म, राम के नाम को हर तरफ से जाचंती है फिर विश्व हिंदू परिषद के राम को भी दिखाती है। आनंद उस साम्प्रदायिकता के सच को उजागर करते हैं, जो सत्ता हासिल करने के लिए राम के नाम का प्रयोग करती हुई लाशों का ढेर लगाती है। फिल्म धार्मिक असहिष्णुता के खिलाफ मानवता को सामने रखती है।
साहित्य-कला-संस्कृति, समाज और मीडिया पर केन्द्रित सृजन और संवाद के जनपक्षधर मंच ‘अन्वेषा’ की ओर से 13 जून को युवा फिल्मकार नकुल सिंह साहनी की चर्चित डाॅक्युमेंट्री फिल्म ‘मुज़फ़्फ़रनगर बाक़ी है…’ का प्रदर्शन और बातचीत। स्थान : उर्दू घर, 212, राउज़ एवेन्यू, नई दिल्ली-2 (आईटीओ, गांधी शांति प्रतिष्ठान के सामने) तिथि : 13 जून 2015; समय : अपराह्न 3 बजे
बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की छठी बरसी पर रिहाई मंच ने लखनऊ में किया सम्मेलन पांच सूत्रीय प्रस्ताव हुआ पारित, बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग लखनऊ, 19 सितंबर 2014। बाटला हाउस फर्जी एनकाउंटर की छठवी बरसी पर समूचे प्रकरण की न्यायिक जांच की मांग को लेकर रिहाई मंच द्वारा ’सांप्रदायिक ध्रुवीकरण […]
By Sourav Banerjee:
It is the high time that the old rhetorics of cow(ard) politics should be challenged, based on the central question that did Hindus, especially the Vedic Indians, never consume beef?
साथ ही इस तरह के मिथक हिंदू महिलाओं की असहायता, नैतिक मलिनता और दर्द को उजागर करते हुए उन्हें अक्सर मुसलमानों के हाथों एक निष्क्रिय शिकार के रूप में दर्शाते हैं.
खुफिया एजेंसियों की साम्प्रदायिकता और आतंकवाद विषय पर आयोजित जन अदालत में लोगों ने अपना पक्ष रखा। इसमें आतंकवाद के नाम पर पीड़ित किये जा रहे लोगों ने अपनी व्यथा सुनाई कि किस तरह से महिलाएं और बच्चे मानसिक प्रताड़ना का शिकार बन रहे हैं।
बर्टोल्ट ब्रेख्त के फासीवाद विरोधी 7 नाटक – ख़ौफ़ की परछाइयां
(नोट: इन पुस्तकों/लेखों/रिपोर्टों की सभी स्थापनाओं से हमारी-आपकी सहमति न ज़रूरी है, न सम्भव। अलग-अलग स्कूल के मार्क्सवादियों की स्थापनाओं में भी अन्तरविरोध हैं। पर इन सभी से आज के नवउदारवादी दौर में, पूरी दुनिया में और भारत में फ़ासीवादी शक्तियों के विविधरूपा नये उभार को समझने के लिए कुछ महत्वपूर्ण नुक्ते और कुछ अन्तर्दृष्टियां मिलती हैं।)
*आनंद सिंह* —…..आईएस के इतिहास से वाकिफ़ कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि यह भस्मासुर इराक़ में 2003 के अमेरिकी हमले के बाद पैदा हुआ और सीरिया में 2011 के बाद से जारी गृहयुद्ध में अमेरिका द्वारा पोषित किया गया है। लेकिन आईएस जैसे बर्बर इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन की अमेरिकी साम्राज्यवादी नीतियों द्वारा पैदाइश और उनका पालन-पोषण कोई नयी बात नहीं है। अमेरिकी विदेश नीति द्वारा ऐसे भस्मासुरों को पैदा करने को का बहुत लंबा इतिहास रहा है।
संघियों के वैचारिक गुरू गोयबल्स का कहना था कि अगर एक झूठ को बार-बार बोला जाये तो वो सच बन जाता है। भारत के संघी इस संदेश पर अमल करते हैं। भारत के संघियों का वैचारिक नारा है – तुम एक झूठ पकड़ोगे, हम हजारों झूठ बोलेंगे।
Though Mohsin’s murder was the worst part of the violence, the state govt as well as the media focuses only on this. But behind this so many planned attacks against the muslim places of worship and on their economic activities.