(kafila.org से साभार)
चारू गुप्ता
लव जेहाद आंदोलन स्त्रियों के नाम पर सांप्रदायिक लामबंदी की एक समकालीन कोशिश है. बतौर एक इतिहासकार मैं इसकी जड़ें औपनिवेशिक अतीत में भी देखती हूँ. जब भी सांप्रदायिक तनाव और दंगों का माहौल मज़बूत हुआ है, तब-तब इस तरह के मिथक गढ़े गए हैं और उनके इर्द गिर्द प्रचार हमारे सामने आये हैं. इन प्रचारों में मुस्लिम पुरुष को विशेष रूप से एक अपहरणकर्ता के रूप में पेश किया गया है और एक ‘कामुक’ मुस्लिम की तस्वीर गढ़ी गयी है.
*चारू गुप्ता * — मैंने 1920-30 के दशकों में उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिकता और यौनिकता के बीच उभर रहे रिश्ते पर काम किया है. उस दौर में लव जेहाद शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ था लेकिन उस समय में भी कई हिंदू संगठनों — आर्य समाज, हिंदू महासभा आदि –- के एक बड़े हिस्से ने ‘मुस्लिम गुंडों’ द्वारा हिंदू महिलाओं के अपहरण और धर्म परिवर्तन की अनेकोँ कहानियां प्रचारित कीं. उन्होंने कई प्रकार के भड़काऊ और लफ्फाज़ी भरे वक्तव्य दिए जिनमें मुसलमानों द्वारा हिंदू महिलाओं पर अत्याचार और व्यभिचार की अनगिनत कहानियां गढ़ी गईं. इन वक्तव्यों का ऐसा सैलाब आया कि मुसलमानों द्वारा हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार, आक्रामक व्यवहार, अपहरण, बहलाना-फुसलाना, धर्मान्तरण और जबरन मुसलमान पुरुषों से हिंदू महिलाओं की शादियों की कहानियों की एक लंबी सूची बनती गई. अंतरधार्मिक विवाह, प्रेम, एक स्त्री का अपनी मर्जी से सहवास और धर्मान्तरण को भी सामूहिक रूप से अपहरण और जबरन धर्मान्तरण की श्रेणी में डाल दिया गया.
उस दौर में उभरे अपहरण प्रचार अभियान और आज के लव जेहाद के बीच मुझे कई समानताएं नजर आती हैं. इन दोनों प्रचारों में मुसलमानों द्वारा हिन्दू महिलाओं के तथाकथित जबरन धरमांतरण की कहानियों ने हिन्दूओं के एक वर्ग को हिन्दू पहचान और चेतना के लिए लामबंदी का एक प्रमुख कारक दे दिया. इसने हिन्दू प्रचारकों को एक अहम संदर्भ बिंदु और एकजुटता बनाने के लिए एक भावनात्मक सूत्र प्रदान किया. साथ ही, इस तरह के अभियान मुसलमान पुरुषों के खिलाफ भय तथा गुस्सा बढ़ाते हैं. हिन्दुत्ववादी ताकतों ने लव जेहाद को मुसलमानों की गतिविधि का पर्याय घोषित कर दिया है. साथ ही इस तरह के मिथक हिंदू महिलाओं की असहायता, नैतिक मलिनता और दर्द को उजागर करते हुए उन्हें अक्सर मुसलमानों के हाथों एक निष्क्रिय शिकार के रूप में दर्शाते हैं. धर्मान्तरित हिंदू स्त्री पवित्रता और अपमान, दोनों का प्रतीक बन जाती है.
तब और अब के अभियान में कई और मुद्दे भी जुड़े हैं. हिंदू प्रचारकों को लगता है कि इससे हम समाज में जो जातीय भेदभाव है, उसको दरकिनार कर सकते हैं और हिंदू सामूहिकता को एकजुट कर सकते हैं. अगर हम गोरक्षा का मुद्दा लें तो यह दलितों का आकर्षित नहीं करेगा. लेकिन औरतों का मुद्दा ऐसा है जिससे जाति को परे रखकर सभी हिंदुओं को लामबंद किया जा सकता है. स्त्री का शरीर हिन्दू प्रचारकों के लिए एक केंद्रीय चिन्ह बन जाता है. लव जेहाद और अपहरण आन्दोलन, दोनों ही हिन्दुओं कि संख्या के सवाल से भी जुड़े हैं. बार-बार कहा जाता है कि हिंदू महिलाएं मुस्लिम पुरुषों से विवाह कर रही हैं और मुस्लिम संख्या बढ़ा रही हैं, लेकिन विभिन्न सर्वेक्षण इस बात को पूरी तरह ख़ारिज कर चुके हैं. असल में हिन्दू प्रचारवादी इस तरह के अभियानों के ज़रिये हिंदू महिला के प्रजनन पर भी काबू करना चाहते हैं.
मेरा मानना है कि हर बलात्कार या जबरन धर्मान्तरण की छानबीन होनी चाहिए और अपराधियों को दण्डित किया जाना चाहिए. लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब हम अलग-अलग घटनाओं को एक ही चश्मे से देखने लगते हैं, जब हम प्यार, रोमांस और हर अंतर्धर्मी विवाह को जबरन धर्मान्तरण के नज़रिए से जांचने लगते हैं. ये गौर तलब है कि 1920-30 के दशकों में कई ऐसे मामले सामने आये जिनमे स्त्रियों ने अपनी मर्ज़ी से मुसलमान पुरुषों के साथ विवाह किया. इनमें विशेष तौर पर वो स्त्रियाँ थीं जो हिन्दू समाज के हाशिए पर थीं, जैसे विधवाएं, दलित स्त्रियाँ और कुछ वैश्याएँ भी. तब हिन्दुओं में विधवा विवाह नाममात्र का था, और ऐसे में कई विधवाओं ने मुस्लिमों के साथ विवाह रचाया. इनकी जानकारी हमें उस समय की कई पुलिस और सी.आई.डी. रिपोर्टों से भी मिलती है.
यह भी कितना विरोधाभासी है कि हिन्दुत्ववादी प्रचार में जब हिंदू स्त्री मुस्लिम पुरुष के साथ विवाह करती तो उसे हमेशा अपहरण के तौर पर व्यक्त किया जाता है. लेकिन जब मुस्लिम स्त्री हिंदू पुरुष के साथ विवाह करती है, तो उसे प्रेम की संज्ञा दी जाती थी. औपनिवेशिक उत्तर प्रदेश में भी इस तरह की कई कहानियां और उपन्यास लिखे गए, जिनमें ऐसे हिन्दू पुरुष को, जो किसी मुस्लिम नारी से प्यार करने में सफल होता था, एक अद्भुत नायक के रूप में पेश किया गया. एक मशहूर उपन्यासशिवाजी व रोशनआरा इस समय प्रकाशित हुआ, जिसे अप्रमाणित सूत्रों के हवाले ऐतिहासिक बताया गया. इसमें मराठा परंपरा का रंग भरकर दर्शाया गया कि शिवाजी ने औरंगजेब की बेटी रोशनआरा का दिल जीता और उससे विवाह कर लिया, जो ऐतिहासिक तथ्य नहीं है.
लव जेहाद जैसे आन्दोलन हिन्दू स्त्री की सुरक्षा करने के नाम पर असल में उसकी यौनिकता, उसकी इच्छा, और उसकी स्वायत्त पहचान पर नियंत्रण लगाना चाहते हैं. साथ ही वे अक्सर हिन्दू स्त्री को ऐसे दर्शाते हैं जैसे वह आसानी से फुसला ली जा सकती है. उसका अपना वजूद, अपनी कोई इच्छा हो सकती है, या वो खुद अंतर्धार्मिक प्रेम और विवाह का कदम उठा सकती है –- इस सोच को दरकिनार कर दिया जाता है. मुझे इसके पीछे एक भय भी नजर आता है, क्योंकि औरतें अब खुद अपने फैसले ले रही हैं.
नफरत फ़ैलानेवाले अभियानों की एक अन्य खासी विशेषता होती है – एक ही बात के दुहराव-तिहराव की, जिससे वो लोगों के सामान्य ज्ञान में शुमार हो जाए. लव जेहाद आन्दोलन में ऐसा झूठा दुहराव काफी नज़र आता है, जिससे साम्प्रदायिकता मज़बूत होती है. इसके आलावा, लव जेहाद में कई नई चीज़ें भी शामिल हुई हैं, जिसमें मुसलमानों के खिलाफ रिसाले में नए-नए आमद भी हैं — आतंकवाद और आतंकवादी मुस्लमान, मुस्लिम साम्प्रदायिकता, आक्रामक मुस्लिम नौजवान, विदेशी फंड और अन्तराष्ट्रीय षड्यंत्र.
इस तरह के दुष्प्रचार से सांप्रदायिक माहौल में तो इजाफा हुआ है, पर यह भी सच है कि महिलाओं ने अंतर्धार्मिक प्रेम और विवाह के ज़रिये इस सांप्रदायिक लामबंदी की कोशिशों में सेंध भी लगायी है. अंबेडकर ने कहा था कि अंतरजातीय विवाह जातिवाद को खत्म कर सकता है. मेरा मानना है कि अंतरधार्मिक विवाह, धार्मिक पहचान को कमजोर कर सकता है. महिलाओं ने अपने स्तर पर इस तरह के सांप्रदायिक प्रचारों पर कई बार कान नहीं धरा है. जो महिलाएं अंतरधार्मिक विवाह करती हैं, वे कहीं न कहीं सामुदायिक और सांप्रदायिक किलेबंदी में सेंध लगाती हैं. रोमांस और प्यार इस तरह के प्रचार को ध्वस्त कर सकता है.
चारु गुप्ता दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.
(kafila.org से साभार)

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