बर्बरता के विरुद्ध

स्याह दौर में कागज कारे

September 1st, 2014  |  Published in Featured, धार्मिक कट्टरपंथ, फ़ासीवाद और आर्थिक नीतियां/Economic Policies and Fascism

सुभाष गाताडे
सुभाष गाताडे

पेड़ खामोश होना चाहते हैं मगर हवाएं हैं कि रुकती नहीं हैं

अंधेरे वक्त़ में

क्या गीत होंगे ?

हां, गीत भी होंगे

अंधेरे वक्त़ के बारे में

           – बर्तोल्त ब्रेख्त

1.

हरेक की जिन्दगी में ऐसे लमहे आते हैं जब हम वाकई अपने आप को दिग्भ्रम में पाते हैं, ऐसी स्थिति जिसका आप ने कभी तसव्वुर नहीं किया हो। ऐसी स्थिति जब आप के इर्द-गिर्द विकसित होने वाले हालात के बारे में आप के तमाम आकलन बेकार साबित हो चुके हों, और आप खामोश रहना चाहते हों, अपने इर्द गिर्द की चीजों के बारे में गहन मनन करना चाहते हों, अवकाश लेना चाहते हों, मगर मैं समझता हूं कि यहां एकत्रित लोगों के लिए – कार्यकर्ताओं, प्रतिबद्ध लेखकों – ऐसा कुछ भी मुमकिन नहीं है। जैसा कि अपनी एक छोटी कविता में फिलीपिनो कवि एवं इन्कलाबी जोस मारिया सिसोन लिखते हैं

‘पेड़ खामोश होना चाहते हैं

मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं’

मैं जानता हूं कि इस वक्त़ हमारा ‘मौन’, हमारी ‘चुप्पी’ अंधेरे की ताकतों के सामने समर्पण के तौर पर प्रस्तुत की जाएगी, इन्सानियत के दुश्मनों के सामने हमारी बदहवासी के तौर पर पेश की जाएगी, और इसीलिए जबकि हम सभी के लिए चिन्तन मनन की जबरदस्त जरूरत है, हमें लगातार बात करते रहने की, आपस में सम्वाद जारी रखने की, आगे क्या किया जाए इसे लेकर कुछ फौरी निष्कर्ष निकालने की और उसे समविचारी लोगों के साथ साझा करते रहने की जरूरत है ताकि बहस मुबाहिसा जारी रहे और हम आगे की दूरगामी रणनीति तैयार कर सकें।

आज जब मैं आप के समक्ष खड़ा हूं तो अपने आप को इसी स्थिति में पा रहा हूं।

क्या यह उचित होगा कि हमें जो ‘फौरी झटका’ लगा है, उसके बारे में थोड़ा बातचीत करके हम अपनी यात्रा को उसी तरह से जारी रखें ?

या जरूरत इस बात की है कि हम जिस रास्ते पर चलते रहे हैं, उससे रैडिकल विच्छेद ले लें, क्योंकि उसी रास्ते ने हमारी ऐसी दुर्दशा की है, जब हम देख रहे हैं कि ऐसी ताकतें जो ‘इसवी 2002 के गुजरात के सफल प्रयोग’ को शेष मुल्क में पहुंचाने का दावा करती रही हैं, आज हुकूमत की बागडोर को सम्भाले हुए हैं।

अगर हम 1992 – जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ था – से शुरू करें तो हमें यह मानना पड़ेगा कि दो दशक से अधिक वक्त़ गुजर गया जबकि इस मुल्क के साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन को, धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक के बाद एक झटके खाने पड़े हैं। हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि बीच में ऐसे भी अन्तराल रहे हैं जब हम नफरत की सियासत करने वाली ताकतों को बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर कर सके हैं, मगर आज जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो यही लगता है कि वह सब उन्हें महज थामे रखने वाला था, उनकी जड़ों पर हम आघात नहीं कर सके थे।

न इस अन्तराल में ‘‘साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष को सर्व धर्म समभाव के विमर्श से आगे ले जाया जा सका और नही समाज एवं राजनीति के साम्प्रदायिक और बहुसंख्यकवादी गढंत (कान्स्ट्रक्ट) को एजेण्डा पर लाया जा सका। उन्हीं दिनों एक विद्वान ने इस बात की सही भविष्यवाणी की थी कि जब तक भारतीय राजनीति की बहुसंख्यकवादी मध्य भूमि majoritarian middle ground – जिसे हम बहुसंख्यकवादी नज़रिये की लोकप्रियता, धार्मिकता की अत्यधिक अभिव्यक्ति, समूह की सीमारेखाओं को बनाए रखने पर जोर, खुल्लमखुल्ला साम्प्रदायिक घटनाओं को लेकर जागरूकता की कमी, अल्पसंख्यक हितों की कम स्वीकृति – में दर्शनीय बदलाव नहीं होता, तब तक नयी आक्रामकता के साथ साम्प्रदायिक ताकतों की वापसी की सम्भावना बनी रहेगी। आज हमारी स्थिति इसी भविष्यवाणी को सही साबित करती दिखती है।

और इस तरह हमारे खेमे में तमाम मेधावी, त्यागी, साहसी लोगों की मौजूदगी के बावजूद ; लोगों, समूहो, संगठनों द्वारा अपने आप को जोखिम में डाल कर किए गए काम के बावजूद और इस तथ्य के बावजूद कि राजनीतिक दायरे में अपने आप के धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाली पार्टियों की तादाद अधिक है और यह भी कि इस देश में एक ताकतवर वाम आन्दोलन – भले ही वह अलग गुटों में बंटा हो – की उपस्थिति हमेशा रही है, यह हमें कूबूल करना पड़ेगा कि हम सभी की तमाम कोशिशों के बावजूद हम भारतीय राजनीति के केन्द्र में हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथ के आगमन को रोक नहीं सके।

और जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं स्थिति की गम्भीरता अधिकाधिक स्पष्ट हो रही है।

इस मौके पर हम अमेरिकन राजनीतिक विज्ञानी डोनाल्ड युजेन स्मिथ के अवलोकन को याद कर सकते हैं, जब उन्होंने लिखा था: ‘‘ भारत में भविष्य में हिन्दू राज्य की सम्भावना को पूरी तरह खारिज करना जल्दबाजी होगी। हालांकि, इसकी सम्भावना उतनी मजबूत नहीं जान पड़ती। भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य के बने रहने की सम्भावना अधिक है।’ (इंडिया एज सेक्युलर स्टेट, प्रिन्स्टन, 1963, पेज 501) इस वक्तव्य के पचास साल बाद आज भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य बहुत कमजोर बुनियाद पर खड़ा दिख रहा है और हिन्दु राज्य की सम्भावना 1963 की तुलना में अधिक बलवती दिख रही है।

2.

निस्सन्देह कहना पड़ेगा कि हमें शिकस्त खानी पड़ी है।

हम अपने आप को सांत्वना दे सकते हैं कि आबादी के महज 31 फीसदी लोगों ने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया और वह जीते नहीं हैं बल्कि हम हारे हैं। हम यह कह कर भी दिल बहला सकते हैं कि इस मुल्क में जनतांत्रिक संस्थाओं की जड़ें गहरी हुई हैं और भले ही कोई हलाकू या चंगेज हुकूमत में आए, उसे अपनी हत्यारी नीतियों से तौबा करनी पड़ेगी।

लेकिन यह सब महज सांत्वना हैं। इन सभी का इस बात पर कोई असर नहीं पड़ेगा जिस तरह वह भारत को और उसकी जनता को अपने रंग में ढालना चाहते हैं।

हमें यह स्वीकारना ही होगा कि हम लोग जनता की नब्ज को पहचान नहीं सके और जाति, वर्ग, नस्लीयता आदि की सीमाओं को लांघते हुए लोगों ने उन्हें वोट दिया। निश्चित ही यह पहली दफा नहीं है कि लोगों ने अपने हितों के खिलाफ खुद वोट दिया हो।

यह हक़ीकत है कि लड़ाई की यह पारी हम हार चुके हैं और हमारे आगे बेहद फिसलन भरा और अधिक खतरनाक रास्ता दिख रहा है।

यह सही कहा जा रहा है कि जैसे-जैसे यह ‘जादू’ उतरेगा नए किस्म के पूंजी विरोधी प्रतिरोध संघर्ष उभरेगे और हरेक को इसमें अपनी भूमिका निभानी पड़ेगी। मगर यह कल की बात है। आज हमें अपनी शिकस्त के फौरी और दूरगामी कारणों पर गौर करना होगा और हम फिर किस तरह आगे बढ़ सकें इसकी रणनीति बनानी होगी।

नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के सहजीवी रिश्ते

भाजपा की अगुआई वाले गठजोड़ को मिली जीत के फौरी कारणों पर अधिक गौर करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और उस पर प्रतिक्रिया भी दी जा चुकी है। जैसा कि प्रस्तुत बैठक के निमंत्रण पत्रा में ही लिखा गया था कि ‘भाजपा की इस अभूतपूर्व जीत के पीछे ‘मीडिया तथा कार्पोरेट तबके एवं संघ की अहम भूमिका दिखती है और कांग्रेस के प्रति मतदाताओं की बढ़ती निराशा ने’ इसे मुमकिन बनाया है। विश्लेषण को पूरा करने के लिए हम चाहें तो ‘युवाओं और महिलाओं के समर्थन’ और ‘मोदी द्वारा आकांक्षाओं की राजनीति के इस्तेमाल’ को भी रेखांकित कर सकते हैं। हम इस बात के भी गवाह हैं कि इन चुनावों ने कई मिथकों को ध्वस्त किया है।-

– मुस्लिम वोट बैंक का मिथक बेपर्द हुआ है

– यह समझदारी कि 2002 के जनसंहार की यादें लोगों के निर्णयों को प्रभावित करेंगी, वह भी एक विभ्रम साबित हुआ है।

– यह आकलन कि पार्टी और समाज के अन्दर नमो के नाम से ध्रुवीकरण होगा, वह भी गलत साबित हो चुका है।

मेरी समझ से यह अधिक बेहतर होगा कि हम हिन्दुत्व दक्षिणपंथ के उभार के फौरी कारणों पर अपना ध्यान केन्द्रित करने के बजाय – जिसे लेकर कोई असहमति नहीं दिखती – अधिक गहराई में जायें और इस बात की पड़ताल करें कि चुनाव नतीजे हमें क्या ‘कहते’ हैं। मसलन्

– भारत में विकसित हो रहे नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के सहजीवी रिश्ते के (symbiotic relationship) बारे में

– हमारे समाज के बारे में जहां मानवाधिकार उल्लंघनकर्ताओं को महिमामण्डित ही नहीं किया जाता बल्कि उनके हाथों में सत्ता की बागडोर सौंपी तक जाती है

– भारतीय राज्य – बिल्कुल आधुनिक संस्था – का भारतीय समाज के साथ रिश्ता, जो अपने बीच से समय समय पर ‘बर्बर ताकतों’ को पैदा करता रहता है

दरअसल, अगर हम अधिक गहराई में जायें, ऐसे कई सवाल उठ सकते हैं, जो ऐसी बैठकों में आम तौर पर उठ नहीं पाते हैं। और आप यकीन मानिये यह सब किसी कथित अकादमिक रूचियों के सवाल नहीं हैं, व्यवहार में उनके परिणाम भी देखे जा सकते हैं। वैसे हिन्दुत्व दक्षिणपंथ का यह उभार जिसे साम्प्रदायिक फासीवाद या नवउदारवादी फासीवाद जैसी विभिन्न शब्दावलियों से सम्बोधित किया जा रहा है, उसके खतरे शुरू से ही स्पष्ट हो रहे हैं। उदाहरण के तौर पर देखें:

– देश के विभिन्न भागों में साम्प्रदायिक तनावों को धीरे हवा देना

– नफरत भरे भाषणों की प्रचुरता

– साम्प्रदायिक हिंसा के अंजामकर्ताओं के प्रति नरम व्यवहार

– पाठयपुस्तकों के केसरियाकरण

– अल्पसंख्यकों का बढ़ता घेट्टोकरण

– अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बढ़ती बंदिशें

– श्रमिकों के अधिकारों पर संगठित हमले

– पर्यावरण सुरक्षा कानूनों में ढिलाई

– भूमि अधिग्रहण कानूनों को कमजोर करने की दिशा में कदम

– दलितों-आदिवासियों की सुरक्षा के लिए बने कानूनों को बेहतर बनाने की अनदेखी

जैसे-जैसे इस मसले पर बहस आगे बढ़ेगी हम इन खतरों के फौरी और दूरगामी प्रभावों से अधिक अवगत होते रहेंगे। शायद जैसा कि इस दौर को सम्बोधित किया जा रहा है – फिर चाहे साम्प्रदायिक फासीवाद हो या कार्पोरेट फासीवाद हो – इस दौरान दोनों कदमों पर चलने की रणनीति अख्तियार की जाती रहेगी। ‘विकास’ के आवरण में लिपटा बढ़ता नवउदारवादी आक्रमण के हमकदम के तौर पर (जब जब जरूरत पड़े) तो साम्प्रदायिक एजेण्डा का सहारा लिया जाएगा ताकि मेहनतकश अवाम के विभिन्न तबकों में दरारों को और चैड़ा किया जा सके, ताकि वंचना एवं गरीबीकरण के व्यापक मुद्दे कभी जनता के सरोकार के केन्द्र में न आ सकें।

यह एक विचित्र संयोग है कि जब हम यहां हिन्दुत्व दक्षिणपंथ के उभार की बात कर रहे हैं, दक्षिण एशिया के इस हिस्से में स्थितियां उसी तर्ज पर दिखती हैं जहां विशिष्ट धर्म या एथनिसिटी से जुड़ी बहुसंख्यकवादी ताकतें उछाल मारती दिखती हैं। चाहे माइनामार हो, बांगलादेश हो, श्रीलंका हो, मालदीव हो या पाकिस्तान हो – आप नाम लेते हैं और देखते हैं कि किस तरह लोकतंत्रवादी ताकतें हाशिये पर ढकेली जा रही हैं और बहुसंख्यकवादी आवाज़ें नयी आवाज़ एवम् ताकत हासिल करती दिख रही हैं।

वैसे बहुत कम लोगों ने कभी इस बात की कल्पना की होगी कि अपने आप को बुद्ध का अनुयायी कहलानेवाले लोग बर्मा/माइनामार में अल्पसंख्यक समुदायों पर भयानक अत्याचारों को अंजाम देनेवालों में रूपान्तरित होते दिखेंगे। अभी पिछले ही साल ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अख़बार ‘गार्डियन’ एवं अमेरिकी अख़बार ‘न्यूयार्क टाईम्स’ ने बर्मा के भिक्खु विराथू – जिसे बर्मा का बिन लादेन कहा जा रहा है – पर स्टोरी की थी, जो अपने 2,500 भिक्खु अनुयायियों के साथ उस मुल्क में आज की तारीख में आतंक का पर्याय बन चुका है, जो अपने प्रवचनों के जरिए बौद्ध अतिवादियों को मुसलमानों पर हमले करने के लिए उकसाता है। बर्मा में रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति इन दिनों अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चिन्ता का विषय बनी हुई है। वहां सेना ने भी बहुसंख्यकवादी बौद्धों की कार्रवाइयों को अप्रत्यक्ष समर्थन जारी रखा है। विडम्बना यह भी देखी जा सकती है कि शेष दुनिया में लोकतंत्र आन्दोलन की मुखर आवाज़ कही जानेवाली आंग सान सू की भी माइनामार में नज़र आ रहे बहुसंख्यकवादी उभार पर रणनीतिक चुप्पी साधे हुए हैं।

उधर श्रीलंका में बौद्ध अतिवादियों की उसी किस्म की हरकतें दिख रही हैं। दो माह पहले बौद्ध भिक्खुओं द्वारा स्थापित बोण्डु बाला सेना की अगुआई में – जिसके गठन को राजपक्षे सरकार का मौन समर्थन प्राप्त है – कुछ शहरों में मुसलमानों पर हमले किए गए थे और उन्हें जानमाल एवं सम्पत्ति का नुकसान उठाना पड़ा था। तमिल उग्रवाद के दमन के बाद सिंहली उग्रवादी ताकतें – जिनमें बौद्ध भिक्खु भी पर्याप्त संख्या में दिखते हैं – अब ‘नये दुश्मनों’ की तलाश में निकल पड़ी हैं। अगर मुसलमान वहां निशाने पर अव्वल नम्बर पर हैं तो ईसाई एवं हिन्दू बहुत पीछे नहीं हैं। महज दो साल पहले डम्बुल्ला नामक स्थान पर सिंहली अतिवादियों ने बौद्ध भिक्खुओं की अगुआई में वहां लम्बे समय से कायम मस्जिदों, मंदिरों और गिरजाघरों पर हमले किए थे और यह दावा किया था कि यह स्थान बौद्धों के लिए ‘बहुत पवित्रा’ हैं, जहां किसी गैर को इबादत की इजाजत नहीं दी जा सकती। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा था कि इन प्रार्थनास्थलों के निर्माण के लिए बाकायदा सरकारी अनुमति हासिल की गयी है। यहां पर भी पुलिस और सुरक्षा बलों की भूमिका दर्शक के तौर पर ही दिखती है।

या आप बांगलादेश जाएं, या हमारे अन्य पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान जाएं, वहां आप देखेंगे कि इस्लामिस्ट ताकतें किस तरह ‘अन्यों’ की जिन्दगी में तबाही मचाये हुए हैं। यह सही है कि सेक्युलर आन्दोलन की मजबूत परम्परा के चलते, बांगलादेश में परिस्थिति नियंत्रण में है मगर पाकिस्तान तो अन्तःस्फोट का शिकार होते दिख रहा है, जहां विभिन्न किस्म के अतिवादी समूहों द्वारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ किए जा रहे अत्याचारों की ख़बरें आती रहती हैं, कभी अहमदिया निशाने पर होते हैं, तो कभी शिया तो कभी हिन्दू।

इस परिदृश्य में रेखांकित करनेवाली बात यह है कि जैसे आप राष्ट्र की सीमाओं को पार करते हैं उत्पीड़क समुदाय का स्वरूप बदलता है। मायनामार अर्थात बर्मा में अगर बौद्ध उत्पीड़क समुदाय की भूमिका में दिखते हैं और मुस्लिम निशाने पर दिखते हैं तो बांगलादेश पहुंचने पर चित्र पलट जाता है और वही बात हम इस पूरे क्षेत्र में देखते हैं। यह बात विचलित करने वाली है कि इस विस्फोटक परिस्थिति में एक किस्म का अतिवाद दूसरे रंग के अतिवाद पर फलता-फूलता है। मायनामार के बौद्ध अतिवादी बांगलादेश के इस्लामिस्ट को ताकत प्रदान करते हैं और वे आगे यहां हिन्दुत्व की ताकतों को मजबूती देते हैं। अगर 20 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में इस समूचे इलाके में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों ने एक दूसरे को मदद पहुंचायी थी, तो 21 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में हम बहुसंख्यकवादी आन्दोलनों का विस्फोट देख रहे हैं जिसने जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के प्रयोगों की उपलब्धियों को हाशिये पर ला खड़ा किया है।

3

जनतंत्र का बुनियादी सूत्र क्या है ?

यही समझदारी कि अल्पमत आवाज़ों को फलने फूलने दिया जाएगा और उन्हें कुचला नहीं जाएगा।

अगर ऊपरी स्तर पर देखें तो बहुसंख्यकवाद – बहुमत का शासन – वह जनतंत्र जैसा ही मालूम पड़ता है, मगर वह जनतंत्र को सर के बल पर खड़ा करता है। असली जनतंत्र फले-फूले इसलिए आवश्यक यही जान पड़ता है कि धर्मनिरपेक्षता का विचार और सिद्धान्त उसके केन्द्र में हो। यह विचार कि राज्य और धर्म में स्पष्ट भेद होगा और धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा, यह उसका दिशानिर्देशक सिद्धान्त होना चाहिए।

बहुसंख्यकवाद स्पष्टतः जनतंत्र को विचार एवं व्यवहार में शिकस्त देता है। जनतंत्र का बहुसंख्यकवाद में रूपान्तरण जहां वास्तविक खतरे के तौर पर मौजूद है, पूंजी के शासन के अन्तर्गत – खासकर नवउदारवाद के उसके वर्तमान चरण में -एक दूसरा उभरता खतरा दिखता है उसका धनिकतंत्र अर्थात प्लुटोक्रसी में रूपान्तरण। हाल में दो दिलचस्प किताबें आयी हैं जिनमें 21 वीं सदी के पूंजीवाद के अलग अलग आयामों की चर्चा है। थॉमस पिकेटी की किताब ‘कैपिटेलिजम इन द टवेन्टी फर्स्ट सेंचुरी’ जो सप्रमाण दिखाती है कि बीसवीं सदी में निरन्तर विषमता बढ़ती गयी है और व्यापक हो चली है, उस पर यहां भी चर्चा चली है। वह इस बात की चर्चा करती है कि ‘‘पूंजीवाद के केन्द्रीय अन्तर्विरोध’’ के परिणामस्वरूप हम ऊपरी दायरों में आय का संकेन्द्रण और उसी के साथ बढ़ती विषमता को देख सकते हैं।

पिकेटी की किताब की ही तरह, अमेरिकी जनतंत्र पर एक प्रमुख अध्ययन भी वहां पश्चिमी जगत में चर्चा के केन्द्र में आया है। वह हमारे इन्हीं सन्देहों को पुष्ट करती है कि जनतंत्र को कुलीनतंत्र ने विस्थापित किया है। लेखकद्वय ने पाया कि ‘‘आर्थिक अभिजातों और बिजनेस समूहों द्वारा समर्थित नीतियों के ही कानून बनने की सम्भावना रहती है.. मध्यवर्ग के रूझान कानूनों की नियति में कोई फर्क नहीं डालते हैं।’’ प्रिन्स्टन विश्वविद्यालय से सम्बद्ध मार्टिन गिलेन्स और नार्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय से सम्बद्ध बेंजामिन पाजे द्वारा किया गया यह अध्ययन – ‘‘टेस्टिंग थियरीज आफ अमेरिकन पालिटिक्स: इलीटस्, इण्टरेस्ट ग्रुप्स एण्ड एवरेज सिटीजन्स’ – इस मिथ को बेपर्द कर देता है कि अमेरिका किसी मायने में जनतंत्र है (http://www.counterpunch.org/2014/05/02/apolitical-economy-democracy-and-dynasty/)  वह स्पष्ट करता है कि ‘ऐसा नहीं कि आम नागरिकों को नीति के तौर पर वह कभी नहीं मिलता जिसे वह चाहते हों। कभी कभी उन्हें वह हासिल होता है, मगर तभी जब उनकी प्राथमिकताएं आर्थिक अभिजातों से मेल खाती हों।’ …‘अमेरिकी जनता के बहुमत का सरकार द्वारा अपनायी जानेवाली नीतियों पर शायद ही कोई प्रभाव रहता है। ..अगर नीतिनिर्धारण पर ताकतवर बिजनेस समूहों और चन्द अतिसम्पन्न अमेरिकियों का ही वर्चस्व हो तब एक जनतांत्रिक समाज होने के अमेरिका के दावों की असलियत उजागर होती है।’ .. उनके मुताबिक अध्ययन के निष्कर्ष ‘‘लोकरंजक जनतंत्र’ के हिमायतियों के लिए चिन्ता का सबब हैं। (सन्दर्भ: वही)

ऐसी परिस्थिति में, जब हम जनतंत्र के बहुसंख्यकवाद में रूपान्तरण और उसके कुलीनतंत्र में विकास के खतरे से रूबरू हों, जबकि पृष्ठभूमि में अत्यधिक गैरजनतांत्रिक, हिंसक भारतीय समाज हो – जो उत्पीड़ितों के खिलाफ हिंसा को महिमामण्डित करता हो और असमानता को कई तरीकों से वैध ठहराता हो और पवित्र साबित करता हो – प्रश्न उठता है कि ‘क्या करें’ ? वही प्रश्न जिसे कभी कामरेड लेनिन ने बिल्कुल अलग सन्दर्भ में एवं अलग पृष्ठभूमि में उठाया था।

4.

अगर हम अधिनायकवाद, फासीवाद के खिलाफ संघर्ष के पहले के अनुभवों पर गौर करें तो एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया यही हो सकती है कि हम एक संयुक्त मोर्चे के निर्माण की सम्भावना को टटोलें।

सैद्धान्तिक तौर पर इस बात से सहमत होते हुए कि ऐसी तमाम ताकतें जो साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ खड़ी हैं, उन्हें आपस में एकजुटता बनानी चाहिए, इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि इस मामले में कोई भी जल्दबाजी नुकसानदेह होगी। उसे एक प्रक्रिया के तौर पर ही देखा जा सकता है – जिसके अन्तर्गत लोगों, संगठनों को अपने सामने खड़ी चुनौतियों/खतरों को लेकर अधिक स्पष्टता हासिल करनी होगी, हमारी तरफ से क्या गलति हुई है उसका आत्मपरीक्षण करने के लिए तैयार होना होगा और फिर साझी कार्रवाइयों/समन्वय की दिशा में बढ़ना होगा। कुछ ऐसे सवाल भी है जिन्हें लेकर स्पष्टता हासिल करना बेहद जरूरी है:

– हम भारत में हिन्दुूत्व के विकास को किस तरह देखते हैं ?

हिन्दुत्व के विचार और सियासत को आम तौर पर धार्मिक कल्पितों ;तमसपहपवने पउंहपदंतपमेद्ध केे रूप में प्रस्तुत किया जाता है, समझा जाता है। (एक छोटा स्पष्टीकरण यहां हिन्दुत्व शब्द को लेकर आवश्यक है। यहां हमारे लिए हिन्दुत्व का अर्थ हिन्दु धर्म से नहीं है, पोलिटिकल हिन्दुइजम अर्थात हिन्दु धर्म के नाम से संचालित राजनीतिक परियोजना से है। सावरकर अपनी चर्चित किताब ‘हिन्दुत्व’ में खुद इस बात को रेखांकित करते हैं कि उनके लिए हिन्दुत्व के क्या मायने हैं।)
उसके हिमायतियों के लिए वह ‘हिन्दू राष्ट्र’ – जो उनके मुताबिक बेहद पहले से अस्तित्व में है – के खिलाफ विभिन्न छटाओं के ‘आक्रमणकर्ताओं’ द्वारा अंजाम दी गयी ‘ऐतिहासिक गलतियों’ को ठीक करने का एकमात्र रास्ता है। यह बताना जरूरी नहीं कि किस तरह मिथक एवं इतिहास का यह विचित्र घोल जिसे भोले-भाले अनुयायियों के सामने परोसा जाता है, हमारे सामने बेहद खतरनाक प्रभावों के साथ उद्घाटित होता है।

इस असमावेशी विचार का प्रतिकारक, उसकी कार्रवाइयों को औचित्य प्रदान करते ‘हम’ और ‘वे’ के तर्क को खारिज करता है, धर्म के आधार पर लोगों के बीच लगातार विवाद से इन्कार करता है, साझी विरासत के उभार एवं कई मिलीजुली परम्पराओं के फलने फूलने की बात करता है। इसमें कोई अचरज नहीं जान पड़ता कि धार्मिक कल्पितों के रूप में प्रस्तुत इस विचार के अन्तर्गत साम्प्रदायिक विवादों का विस्फोटक प्रगटीकरण यहां समुदाय के ‘चन्द बुरे लोगों’ की हरकतों के नतीजे के तौर पर पेश होता है, जिन्हें हटा देना है या जिनके प्रभाव को न्यूनतम करना है। इस समझदारी की तार्किक परिणति यही है कि धर्मनिरपेक्षता को यहां जिस तरह राज्य के कामकाज में आचरण में लाया जाता है, वह सर्वधर्मसमभाव के इर्दगिर्द घुमती दिखती है। राज्य और समाज के संचालन से धर्म के अलगाव के तौर पर इसे देखा ही नहीं जाता।

इस तथ्य को मद्देनज़र रखते हुए कि विगत लगभग ढाई दशक से हिन्दुत्व की सियासत उठान पर है – निश्चित ही इस दौरान कहीं अस्थायी हारों का भी उसे सामना करना पड़ा है – और उसके लिए स्टैण्डर्ड/स्थापित प्रतिक्रिया अब प्रभाव खोती जा रही है और उससे निपटने के लिए बन रही रणनीतियां अपने अपील एवं प्रभाव को खो रही हैं, अब वक्त़ आ गया है कि हम इस परिघटना को अधिक सूक्ष्म तरीके से देखें। अब वक्त़ है कि हम स्टैण्डर्ड प्रश्नों से और उनके प्रिय जवाबों से तौबा करें और ऐसे दायरे की तरफ बढ़े जिसकी अधिक पड़ताल नहीं हुई हो। शायद अब वक्त़ है कि उन सवालों को उछालने का जिन्हें कभी उठाया नहीं गया या जिनकी तरफ कभी ध्यान भी नहीं गया।

क्या यह कहना मुनासिब होगा कि हिन्दुत्व का अर्थ है भारतीय समाज में वर्चस्व कायम करती और उसका समरूपीकरण करती ब्राह्मणवादी परियोजना का विस्तार, जिसे एक तरह से शूद्रों और अतिशूद्रों में उठे आलोडनों के खिलाफ ब्राह्मणवादी/मनुवादी प्रतिक्रान्ति भी कहा जा सकता है। याद रहे औपनिवेशिक शासन द्वारा अपने शासन की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए जिस किस्म की नीतियां अपनायी गयी थीं – उदाहरण के लिए शिक्षा के दरवाजे शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए खोल देना या कानून के सामने सभी को समान दर्जा आदि – के चलते तथा तमाम सामाजिक क्रान्तिकारियों ने जिन आन्दोलनों की अगुआई की थी, उनके चलते सदियों से चले आ रहे सामाजिक बन्धनों में ढील पड़ने की सम्भावना बनी थी।

आखिर हम हिन्दुत्व के विश्वदृष्टिकोण उभार को मनुवाद के खिलाफ सावित्रीबाई एवं जोतिबा फुले तथा इस आन्दोलन के अन्य महारथियों – सत्यशोधक समाज से लगायत सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेण्ट या इंडिपेण्डट लेबर पार्टी तथा रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया, या जयोति थास, अछूतानन्द, मंगू राम, अम्बेडकर जैसे सामाजिक विद्रोहियों की कोशिशों के साथ किस तरह जोड़ सकते हैं ?

इस सन्दर्भ में यह प्रश्न उठना भी लाजिमी है कि पश्चिमी भारत का वर्तमान महाराष्ट्र का इलाका – जो उन दिनों सूबा बम्बई में शामिल था- जहां अल्पसंख्यकों की आबादी कभी दस फीसदी से आगे नहीं जा सकी है और जहां वह कभी राजनीतिक तौर पर वर्चस्व में नहीं रहे हैं आखिर ऐसे इलाके में किस तरह रूपान्तरित हुआ जहां हम तमाम अग्रणी हिन्दुत्व विचारकों – सावरकर, हेडगेवार और गोलवलकर – के और उनके संगठनों के उभार को देखते हैं, जिन्हें व्यापक वैधता भी हासिल है।

इस प्रश्न का सन्तोषजनक जवाब तभी मिल सकता है जब हम हिन्दुत्व के उभार को लेकर प्रचलित तमाम धारणाओं पर नए सिरेसे निगाह डालें और उन पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार हों। दूसरे शब्दों में कहें तो हमें (बकौल दिलीप मेनन) ‘जाति, धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के बीच के अन्तरंग सम्बन्धों की पड़ताल करने के प्रति जो आम अनिच्छा दिखती है’ (पेज 2, द ब्लाइंडनेस आफ साइट, नवयान 2006) उसे सम्बोधित करना होगा। वे लिखते हैं:

हिन्दुधर्म की आन्तरिक हिंसा काफी हद तक मुसलमानों के खिलाफ निर्देशित बाहरी हिंसा को स्पष्ट करती है जब हम मानते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर वह पहले घटित हुई है। सवाल यह उठना चाहिए: आन्तरिक अन्य अर्थात दलित के खिलाफ केन्द्रित हिंसा किस तरह (जो अन्तर्निहित असमानता के सन्दर्भ में ही मूलतः परिभाषित होती है) कुछ विशिष्ट मुक़ामों पर बाहरी अन्य अर्थात मुस्लिम के खिलाफ आक्रमण ( जो अन्तर्निहित भिन्नता के तौर पर परिभाषित होती है) में रूपान्तरित होती है ? क्या साम्प्रदायिकता भारतीय समाज में व्याप्त हिंसा और असमानता के केन्द्रीय मुद्दे का विस्थापन/विचलन (डिफ्लेक्शन) है ? (वही)

– अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के बारे में हम क्या सोचते हैं ?

हम जानते हैं कि जब मुसलमानों का प्रश्न उपस्थित होता है – जो हमारे यहां के धार्मिक अल्पसंख्यकों में संख्या के हिसाब से सर्वाधिक हैं – हम अपने आप को दुविधा में पाते हैं। हम जानते हैं कि इस समुदाय का विशाल हिस्सा अभाव, वंचना और दरिद्रीकरण का शिकार है, जो सामाजिक आर्थिक विकास के मॉडल का नतीजा है, मगर राज्य की संस्थाओं तथा ‘नागरिक समाज’ के अन्दर उनके खिलाफ पहले से व्याप्त जबरदस्त पूर्वाग्रहों के चलते मामला अधिक गंभीर हो जाता है। सच्चर कमीशन की रिपोर्ट के बाद पहली बार उनको लेकर चले आ रहे कई मिथक ध्वस्त हुए। उदाहरण के तौर पर बहुसंख्यकवादी ताकतों ने यही प्रचार कर रखा है कि किस तरह पार्टियां ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का सहारा लेती है या किस तरह मुसलमान विद्यार्थियों का बड़ा हिस्सा मदरसों में तालीम हासिल करने जाता है। मगर सच्चर आयोग ने अपने विस्तृत अध्ययन में यह साबित कर दिया कि वह सब दरअसल गल्प से अधिक कुछ नहीं है।

आज़ादी के बाद के इस साठ साल से बड़े कालखण्ड में हजारों दंगें हुए हैं, जहां आम तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय प्रशासकीय उपेक्षा और बहुसंख्यकवादी ताकतों के अपवित्र गठजोड का शिकार होता रहा है। यह भी देखने में आया है कि दंगों की जांच के लिए बने आयोगों की रिपोर्टों में स्पष्ट उल्लेखों के बावजूद न ही दंगाई जमातों या उनके सरगनाओं को कभी पकड़ा जा सका है और न ही दोषी पुलिस अधिकारियों को कभी सज़ा मिली है। और जैसा कि राजनीति विज्ञानी पाल आर ब्रास बताते हैं कि आज़ाद भारत में ‘संस्थागत दंगा प्रणालियां’ विकसित हुई हैं, जिनके चलते ‘हम’ और ‘वे’ की राजनीति करनेवाले कहीं भी और कभीभी दंगा भड़का सकते हैं। 2002 के गुजरात दंगों के बाद ही हम इस बात से अधिक सचेत हो चले हैं कि किस तरह अब राज्य ने दंगापीड़ितों को सहायता एवं पुनर्वास के काम से अपना हाथ खींच लिया है और समुदायों के संगठन इस मामले में पहल ले रहे हैं। ओर यह बात महज गुजरात को लेकर सही नहीं है, विगत तीन बार से असम में राज्य कर रही गोगोई सरकार के अन्तर्गत हम इसी नज़ारे से रूबरू थे। स्पष्ट है कि जब समुदाय के संगठन ऐसे राहत एवं पुनर्वास शिविरों का संचालन करेंगे तो पीड़ितों को अपनी विशिष्ट राजनीति से भी प्रभावित करेंगे।

वैसे समुदाय विशेष पर निशाने पर रखने के मामले में बाहर आवाज़ बुलन्द करने के अलावा समुदाय का नेतृत्व और अधिक कुछ करता नहीं दिखता, ताकि अशिक्षा, अंधश्रद्धा में डूबी विशाल आबादी आज़ाद भारत में एक नयी इबारत लिख सके।

दरअसल उनकी राजनीति की सीमाएं स्पष्ट हैं। वहां वर्चस्वशाली राजनीति बुनियादी तौर पर गैरजनतांत्रिक है। दरअसल कई उदाहरणों को पेश किया जा सकता है जिसमें हम पाते हैं कि जहां समुदाय के हितों के नाम पर वह हमेशा तत्पर दिखते हैं, वहीं आन्तरिक दरारों के सवालों को उठाने को वह बिल्कुल तैयार नहीं दिखते, न उसे मुस्लिम महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति की चिन्ता है, न ही वह समुदाय के अन्दर जाति के आधार पर बने विभाजनों – जिसने वहां पसमान्दा मुसलमानों के आन्दोलन को भी जन्म दिया है – के बारे में ठोस पोजिशन लेने के लिए तैयार है। उल्टे हम उसे कई समस्याग्रस्त मसलों की खुल्लमखुल्ला हिमायत करते दिखते हैं या उस पर मौन बरतते देखते हैं। उदाहरण के लिए, अहमदिया समुदाय को लें, जिसे पाकिस्तानी हुकूमत ने कट्टरपंथी तत्वों के दबाव में गैरइस्लामिक घोषित कर दिया है, ऐसा करनेवाला वह दुनिया का एकमात्र मुल्क है। हम यहां पर देखते हैं कि यहां पर भी मुस्लिम समुदाय के अन्दर ऐसी आवाज लगातार मुखर हो रही है कि उन्हें ‘गैरइस्लामिक’ घोषित कर दिया जाए।

इस्लामिक समूहों/संगठनों द्वारा देश के बाहर लिए जाने वाले मानवद्रोही रूख को लेकर भी वह अक्सर चुप ही रहता है। चाहे बोको हराम का मसला लें या पड़ोसी मुल्क बांगलादेश के स्वाधीनता संग्राम में जमाते इस्लामी द्वारा पाकिस्तानी सरकार के साथ मिल कर किए गए युद्ध अपराधों का मसला लें, यहां का मुस्लिम नेतृत्व या तो खामोश रहा है या उसने ऐसे कदमों का समर्थन किया है। पिछले साल जब बांगलादेश में युद्ध अपराधियों को दंडित करने की मांग को लेकर शाहबाग आन्दोलन खड़ा हुआ तब यहां के तमाम संगठनों ने जमाते इस्लामी की ही हिमायत की। कुछ दिन पहले लखनउ के एक सुन्नी विद्वान – जो नदवा के अलीमियां के पोते हैं – उन्होंने देश के सुन्नि?

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