(saddahaq.com पर अभिषेक ई. ए. द्वारा प्रकाशित साक्षात्कार के हिंदी अनुवाद की साभार प्रस्तुति)
डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार राकेश शर्मा ने विस्तार से अपने क्राउडफंडिंग कैंपेन के बारे में बताया जो वह पिछले एक दशक में जुटायी गयी फुटेज की आर्काइविंग प्रक्रिया की फंडिंग के लिए चला रहे हैं। यह आर्काइविंग बेहद ज़रूरी है क्योंकि उन्होंने अधिकांश फिल्मांकन ऐसे टेपों पर किया है जो समय के साथ खराब होने लगते हैं। यह अभियान बेहद ज़रूरी होने की एक वजह यह है कि गोधरा दंगों पर आधारित उनकी पिछली फिल्म ‘फ़ाइनल सॉल्यूशन’ अब तक भारत में बनी सर्वाधिक प्रभावशाली सामाजिक-राजनीतिक डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में से एक है।
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प्रश्न. इन टेपों की जिस सामग्री को आर्काइव करने की ज़रूरत है, वे आपके किस प्रोजेक्ट के लिए हैं? क्या वे फ़ाइनल सॉल्यूशन का विस्तार हैं?
इस आर्काइविंग प्रोजेक्ट का लक्ष्य 2002 के बाद से ही, यानी जब मैंने फाइनल सॉल्यूशन का फिल्मांकन शुरू किया था, 10-11 वर्षों की अवधि में फिल्मायी गयी फुटेज को संरक्षित करना है। मैंने गुजरात, मुंबई (26/11 और ट्रेन धमाकों के बाद), मालेगांव, और देश के कुछ अन्य हिस्सों में बड़े पैमाने पर फिल्मांकन किया है। गुजरात में ही, 2006 से, मैंने ‘फ़ाइनल सॉल्यूशन के फॉलो-अप के लिए फिल्मांकन किया है; यह फिल्मांकन वर्ष 2013 की शुरुआत में, मोदी द्वारा तीसरे विधानसभा चुनावों में व्यापक जीत हासिल करने और दिल्ली पर निगाहें जमाने के बाद, पूरा हुआ।
वर्ष 2007 और 2012 के चुनावों के फिल्मांकन के साथ ही, मैंने फ़ाइनल सॉल्यूशन में फिल्माए गये लोगों और स्थानों का दोबारा फिल्मांकन किया है।
प्रश्न. क्या आप इस संबंध में कुछ उदाहरण और खास बातें बता सकते हैं कि इन टेप की सामग्री कितनी महत्वपूर्ण?
इनमें 10 वर्ष के कालखंड में बीतीं अनेक कहानियां हैं! उदाहरण के लिए, फ़ाइनल सॉल्यूशन का आरंभ और अंत जिस बच्चे इजाज़ से होता है, वह अब वयस्क होने की कगार पर खड़ा एक नौजवान है। हम बीते एक दशक से संपर्क में बने हुए हैं। कैमरे के सामने एक युवा के रूप में उसका आना दिलचस्प लगता है; वह उसका जिक्र भी करता है जो मैंने 2002 में उसके साथ फिल्माया था! या गुलबर्ग सोसायटी के सलीमभाई और सायराबेन की कहानी, जिन्होंने उन दंगों में, वकालत की पढ़ाई करने वाले अपने 24 साल के बेटे को गंवा दिया था – उनकी दृढ़ता, प्रतिरोधक्षमता और भारतीय न्याय व्यवस्था में उनके विश्वास ने उन्हें इन वर्षों के दौरान जीने का साहस दिया है।
राजनीतिक प्रक्रियाओं और चुनावों के अतिरिक्त, मेरा ध्यान हमेशा ही इस तरह की हिंसा का शिकार बने लोगों के रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर पड़ने वाले दीर्घकालिक प्रभावों पर गया है। मैंने केवल मुसलमान पीड़ितों को ही नहीं फिल्माया है, बल्कि साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 हादसे में अपने प्रियजनों को गंवाने वाले बहुत से हिंदू परिवारों से भी बातचीत की है। मैंने उन दंगों की हमलावर भीड़ का हिस्सा रहे कई लोगों के साथ भी पर्याप्त समय गुज़ारा है, जिनमें से कुछ जेल में हैं, कुछ पर मुकदमा चल रहा है – दंगों में आगे रहने वाले साधारण लोग, जिनमें से अधिकांश दलित-अन्य पिछड़ी जातियों से आते हैं।
प्रश्न. आप इस प्रक्रिया के लिए ‘विशबेरी’ जैसे क्राउडफंडिंग पोर्टल का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे हैं?
मेरे फेसबुक ग्रुप, सार्वजनिक पेज, प्रोफाइल और ट्विटर पर मैं 7-8000 लोगों से जुड़ा हुआ हूं, जिनमें से अधिकांश मेरे कार्य से परिचित हैं।
मुझे सबसे पहले उनसे एकजुटता और सहयोग हासिल करना ज्यादा ठीक लगा। यदि ज़रूरत हुई, तो मैं बाद में क्राउडफंडिंग के लिए विशेषीकृत सार्वजनिक मंच का इस्तेमाल करने का इरादा भी रखता हूं।
प्रश्न. क्या आर्काइविंग प्रक्रिया के लिए आपने किसी सरकारी एजेंसी से भी संपर्क किया है?
नहीं। मुझे ऐसी किसी सरकारी एजेंसी के बारे में नहीं पता जो आर्काइविंग के लिए सहयोग करती है। वैसे भी, मैं एक स्वतंत्र फिल्मकार के रूप में काम करना पसंद करता हूं। मैंने सरकारी फंडिंग या संरक्षण कभी नहीं लिया है।
प्रश्न. ये फिल्में कब तक जारी होने की उम्मीद की जा सकती है?
मेरे ख्याल से यह एक फिल्म के बजाय कई फिल्मों का सेट होगा। आर्काइविंग के बाद, हम पूरी तरह संपादन में जुट जाएंगे। बीतें वर्षों में, कुछ हिस्सों का आंशिक संपादन किया गया है – लेकिन आर्काइव में मौजूद 6-700 घंटे की सामग्री का मिलान करना, विश्लेषण करना और संरचनाबद्ध करना वास्तव में बहुत बड़ा काम है।
फंडिंग और संसाधनों की कमी इसमें एक बड़ी बाधा है। क्योंकि मैं किसी फंडिंग या अनुदान के बिना काम करता हूं, इसलिए मेरे अधिकांश संसाधन एक दशक के फिल्मांकन की प्रक्रिया के दौरान ही चुक गए हैं। शायद आपको पहले से पता हो, फिल्म बनाने का मेरा न्यूनतम लागत का मॉडल मुख्यत: मुझ पर निर्भर रहा है जिसमें निर्माता, निर्देशक, शोधकर्ता, साक्षात्कारकर्ता, दूसरा कैमरामैन (मैं अधिकांशत: 2 कैमरा से शूट करता हूं), संपादक, साउंड डिजाइनर, सबटाइटलिंग, वितरक आदि की अनेक भूमिकाएं मैं ही निभाता रहा हूं। 2007-08 में, पीठ/रीढ़ की गंभीर समस्या से ग्रस्त होने और फिर इलाज-स्वास्थ्य लाभ-फिर समस्या उबरने के दुष्चक्र में अगले 4 वर्ष बीत गए। इससे मेरी आय पर बहुत ज्यादा असर पड़ा और मेरी सारी आय, बचत, और निवेश फिल्मांकन की प्रक्रिया में ही चुक गए।
वैसे तो मैं अब ‘स्वस्थ’ हो गया हूं, लेकिन डॉक्टरों ने बहुत प्रतिबंध लगा दिए हैं, जिससे मेरी कार्य पद्धतियां और शैली सीमित हो गई हैं। जैसेकि, अब मैं पहले की तरह 14 घंटे की एडिटिंग शिफ्ट में काम नहीं कर सकता! यानी, अब मुझे लंबी पोस्ट-प्रोडक्शन प्रक्रिया के लिए पेशेवर संपादकों और सहायक निर्देशकों की आवश्यकता है और साउंड मिक्सिंग और विजुअल करेक्शन आदि के लिए शायद एक स्टूडियो की ज़रूरत भी हो। ये भारी खर्च होंगे! फंड जुटाने के इस चक्र के बाद, हमें वास्तविक संपादन प्रक्रिया के लिए फंड जुटाने होंगे – जिन्हें कार्य पूरा करने के लिए आवश्यक फंड भी कह सकते हैं।
प्रश्न. क्या आपको लगता है कि जिस परिदृश्य में सामाजिक-सांस्कृतिक डॉक्यूमेंट्री बनायी और रिलीज की जा रही हैं, उसमें फ़ाइनल सॉल्यूशन के बाद से किसी तरह का सुधार हुआ हैं?
मैं वाकई ऐसी उम्मीद करता हूं! बिल्कुल, सोशल मीडिया नेटवर्क की पहुंच अब पहले से कहीं ज्यादा है। इंटरनेट की स्पीड बेहतर हुई है, जिससे हम वीडियो ऑनलाइन दिखा सकते हैं और डाउनलोड कर सकते हैं। लेकिन, विकल्प के तौर पर ये अब भी पर्याप्त नहीं हैं, विशेषतौर पर भारत के संदर्भ में। यहां ऑनलाइन कनेक्टिविटी केवल उनको उपलब्ध है जो इसका खर्च उठा सकते हैं; इसकी पहुंच मध्य वर्ग/उच्च वर्ग तक सीमित है। हमें नहीं मालूम कि उनमें से भी कितने लोग वास्तव में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म डाउनलोड करने या देखने के लिए भुगतान करेंगे, क्योंकि ज्यादातर इंटरनेट उपयोगकर्ता मुफ्त ऑनलाइन सामग्री के आदी हैं।
मुझे लगता है कि अब लोगों को समझना चाहिए कि यदि वे डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए आर्थिक सहयोग नहीं देंगे, तो हमें स्वतंत्र रूप से बनायी गयी कम से कम फिल्में देखने को मिलेंगी। आखिर, आप राज्य के प्रति अधिकांशत: आलोचनात्मक कृति के लिए राज्य से आर्थिक सहयोग की उम्मीद नहीं कर सकते, और नए राजनीतिक परिदृश्य में तो यह बिल्कुल संभव नहीं है। बाकी जगहों से अलग, भारत में, अनुदान आदि के जरिए ऐसे कामों के लिए किसी प्रकार के कॉरपोरेट या फाउंडेशन का सहयोग शायद ही मिलता हो। इसलिए, हमें अपने दर्शकों पर निर्भर करना चाहिए – हमें फिल्मों की स्क्रीनिंग के लिए ज़्यादा जगहों, स्क्रीनिंग के वक्त अधिक योगदान करने वाले, अधिक संख्या में डीवीडी खरीदने वाले और ऑनलाइन फिल्म देखने के लिए भुगतान करने को तैयार लोगों की ज़रूरत है। अन्यथा, हमारे पास केवल मल्टीप्लेक्सों का पलायनवादी हंगामा और तथ्यात्मक कार्यक्रम (विशेषकर, समाचार) चैनलों का कोलाहल ही बचा रह जाएगा।
अपने समर्थन और सहयोग करने के लिए राकेश से सीधे संपर्क करें: rakeshs.distribution@gmail.com
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(राकेश शर्मा ने अपने शुभचिंतकों और समर्थकों के नाम एक अपील भी जारी की है, जो हम ‘स्मैश फासिस्म’ पर प्रकाशित कर रहे हैं।)
अपने दर्शकों और शुभचिंतकों से सहयोग की अपील
मैं आर्थिक योगदान के लिए एक सीमित अपील जारी कर रहा हूं। यह अपील विशेष तौर पर उन लोगों को संबोधित है जो भारत में घृणा/असहिष्णुता की राजनीति के उत्थान और उसके मज़बूत होने के दस्तावेजीकरण के संबंध में मेरे काम से पहले से परिचित हैं और आज के दौर में ऐसे काम की ज़रूरत को समझते हैं। मैं मानता हूं कि मेरे दर्शक ही मेरे प्रोड्यूसर हैं, शायद इसीलिए कभी किसी एनजीओ, फ़ाउंडेशन या धन्ना सेठ से फंडिंग के लिए लाखों रुपए नहीं मांगे। मेरे अधिकांश स्रोत-संसाधन (आय, बचत और निवेश) 6-7 वर्ष की फिल्मांकन प्रक्रिया में खर्च हो गए। अब संपादन के लिए अपने ही दर्शकों, और संस्कृति एवं राजनीतिकर्मी साथियों से अपील कर रहा हूं। आपमें से जो भी इस कार्य में मेरा सहयोग करना चाहे, वे कृपया इस ईमेल आईडी पर संपर्क करें: rakeshs.distribution@gmail.com
जैसाकि आप में से अधिकांश लोग जानते हैं, मैं वर्ष 2002 से ही, गुजरात और भारत के अन्य हिस्सों (मंगलोर, आजमगढ़, कंधमाल, मुंबई, मालेगांव आदि) में फिल्मांकन कर रहा हूं। अब मेरे पास तकरीबन 700-800 घंटे की फुटेज है जिसे तुरंत पेशेवर ढंग से आर्काइव करने की ज़रूरत है। ज़्यादातर फिल्मांकन डीवीकैम के टेप्स पर हुआ है, इसलिए जब तक इस पूरी फुटेज का अनुक्रमण, व इसे सूचीबद्ध नहीं किया जाता; जब तक इसके साक्षात्कारों का लिप्यांतरण एवं डिजिटलाइज़ नहीं किया जाता और इसके सहित अन्य फिल्मांकित सामग्री को दर्ज करके हार्ड डिस्क पर बैकअप नहीं लिया जाता; तब तक इसके सही-सलामत बने रहने की संभावना नहीं है।
हालांकि, हम इस सामग्री के संपादन और पोस्ट-प्रोडक्शन के लिए अलग से फंड जुटाने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन फिलहाल हमारी प्राथमिकता फुटेज के विस्तृत ब्यौरे और लिप्यांतरण के साथ, फुल-रेज़ोल्यूशन वाला डिजिटल आर्काइव तैयार करना है। यह आपात स्थिति इन डीवी टेप्स के क्षरण एवं क्षतिग्रस्त होने की संभावना के कारण उत्पन्न हुई है। अभी की स्थिति में, हमारा ध्यान 10 वर्ष पहले फिल्मांकित कुछ टेपों में अवांछित डिजिटल परिवर्तन (डिजिटल आर्टिफैक्ट), चिपचिपे टेप, छूटे हुए फ्रेम (स्किप्ड फ्रेम्स), क्षतिग्रस्त मेटाडेटा और मामूली फफूंद तक की समस्या की ओर गया है। समय बीतने के साथ-साथ पूरी सामग्री इस समस्या से प्रभावित हो सकती है – जोकि एक भयानक हानि होगी, क्योंकि संभवत:, यह भारत में अपने प्रकार का सर्वाधिक व्यापक आर्काइव है! हमारे द्वारा फिल्माए गए फुटेज के अतिरिक्त, संबंधित स्टॉक फुटेज का बहुत बड़ा आर्काइव है, जो बीते कई वर्षों में बहुत मेहनत से इसी प्रकार संरक्षित करने के लिए जुटाया गया है।
यदि आप इस महत्वपूर्ण कार्य में सहयोग करना चाहते हैं, तो कृपया हमें अपनी ईमेल आईडी भेजें या उपरोक्त ईमेल आईडी पर लिखे ताकि हम इस फिल्म सामग्री/फिल्मों के बारे में विस्तृत जानकारी के साथ ही उपयुक्त बैंक विवरण आदि भी भेज सकें।
इस काम के प्रति आपकी एकजुटता और सहयोग के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!
नोट: मैंने हाल ही में निर्माणाधीन फिल्मों के कुछ अंश यहां अपलोड किए हैं: https://vimeo.com/rakeshfilm/videos
राकेश शर्मा

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