बर्बरता के विरुद्ध

भगवा जनसांख्यिकी के बारे में

December 6th, 2010  |  Published in फ़ासिस्‍ट कुत्‍सा प्रचार का भंडाफोड़/Exposure, साम्‍प्रदायिकता

मोहन राव
(ईपीडब्‍ल्‍यू, वॉल्‍यमू XLV नं. 41 अक्‍टूबर 09,2010
से साभार)
हाल ही में मैंनेइंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ हेल्थ सर्विसेज़ को एक आलेख भेजा जो इस बात की पड़ताल करता है की किस प्रकार नव-माल्थसवादी जनसांख्यिकी विमर्श और नव-उदारवादी नीतियाँ; अस्मिता और कट्टरपंथ के विमर्श में और निश्‍चय ही अल्पसंख्यकों पर प्राणघातक हमलों में – जैसा की २००२ में गुजरात में हुआ – योगदान करते हैं. अब यह लगता है की यह भोलेपन की ही निशानी थी की मुझे इस बात का एहसास नहीं हुआ की तथाकथित हिन्दू विमर्श कहॉं तक पहुँच गया है. मुझे हैरानी तब हुई जब मेरे आलेख के रेफरी ने लिखा :
हिन्दू साम्प्रदायिकता का ज़िक्र सही नहीं है…गुजरात के सन्दर्भ में “फासीवाद” और  “नरसंहार” जैसे शब्दों का इस्तेमाल इन अत्यंत गंभीर शब्दों की  अपर्याप्त समझ और भारत में हिन्दू-मुस्लिम समस्या सेनिपटने के लिए ज़रूरी संतुलन के अभाव को दर्शाता है. अगर लेखक को इन परिधिगतमुद्दों को उठाना था, तो लेखक उस समय बड़े पैमाने पर हुए नस्लीय सफाए (ethnic cleansing ) और हिन्दू महिलाओं के अपहरण और धर्मांतरण कासंदर्भ दे सकता था. लेखक को कम से कम इस बात की व्याख्या करनी चाहिए थी कि किस प्रकार कई स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों में गुजरात केमुसलमानों ने बड़ी संख्या में एक हिन्दू धार्मिक पार्टी को वोट दिया था. ऐसे संवेदनशील मुद्दे को छेड़ते वक़्त संतुलन बरतने के लिए लेखक को ज़िक्र करना चाहिए था की किसप्रकार जम्मू-कश्मीर तथा देश के कई अन्य हिस्सों में पिछले कई वर्षों के दौरानइससे कई गुना अधिक निर्दोष हिन्दुओं कि हत्या कि गयी थी जिसमें मुंबई केसिलसिलेवार बम धमाके तथा हिन्दुओं के पवित्रतम मंदिरों में भक्तों पर दुस्साहसीहमले शामिल हैं. तथाकथित हिंदू फासीवादनरसंहारसंबंधी बेहद आपत्तिजनक दलीलों में पड़ने के बजाय लेखक को हमारे सबसे उत्‍कृष्‍टजनसंख्‍याविदों में से एक द्वारा 22001 कि जनगणना के आंकड़ों के एक सजग पश्च विश्‍लेषण( regression analysis) का ज़िक्र करनाचाहिए था जो निर्णायक रूप से यह सिद्ध करता है कि भारत में मुसलामानों की जनसंख्या वृद्धि की दर हिन्दुओंऔर कैथोलिक बहुसंख्या वाली भारतीय ईसाईयों कि तुलना में कहीं अधिक है. 1
यह बात अलग है किरेफरी कि यह रिपोर्ट झूठ का पुलिंदा है. लेकिन इसने पत्रिका के संपादक को निश्चितही क़ायल कर दिया. संपादक को भेजे अपने जवाब में मैंने लिखा कि रेफरी कि कुछटिप्पणियाँ मेरे द्वारा दी गयी दलील के सन्दर्भ में अप्रासंगिक हैं जबकि कुछ इसकोही सिद्ध करती हैं. मैंने लिखा कि उसमें तथ्यगत त्रुटियाँ थीं: आधिकारिक तथानागरिक ग्रुपों दोनों द्वारा तैयार की गयी गुजरात नरसंहार से सम्बंधित किसी भीरिपोर्ट में बड़े पैमाने पर नस्ली सफ़ाए का तथा हिन्दू महिलाओं के अपहरण वधर्मान्तरण का कोई ज़िक्र नहीं है. दूसरी ओर अपने आप को हिन्दू कहने वाले ऐसेग्रुप थे जिन्होंने इस नरसंहार के पहले ऐसी अफवाहें उड़ायीं और जिन्‍होंने राज्य की मिलीभगत से इसकी शुरुआतकी तथा इसमें हिस्सा लिया. जनगणना तथा हमारे उत्कृष्टतम जनसांख्यिकीविद्  का ज़िक्र भी उतना ही संदेहास्पद था. वही उत्कृष्टतम जनसांख्यिकीविद इस बात का ज़िक्र करना  “भूल” गया था कि मुसलमाओं की जन्म दर में गिरावट हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक तेज़ थी (कृष्णाजी एवं जेम्स २००५).
ख़तरनाक मिथक

ज़ाहिरा तौर पर बात महज़ तथ्यों कि नहीं बल्कि राजनीति की है. तथाकथित मुस्लिम कट्टरपंथियों के आतंकवादी कारनामों तथा गुजरात में राज्य प्रायोजित नरसंहार के बीच सम्बन्ध मेरी समझ से परे है. मेरे आलेख में इस बात को समझने की कोशिश की गयी थी कैसे भिन्न-भिन्न प्रकार के कट्टरपंथी जनसंख्या कि दलील का इस्‍तेमाल भय फैलाने और नफरत भड़काने के लिए करते हैं. यह बात सर्वविदित है कि कभी-कभी फासीवादी चुनाव भी जीत लेते हैं – हिटलर से लेकर मिलोसेविच से लेकर मोदी तक. वे सभी भय कि राजनीति करते हैं जिसमें यह बताया जाता है कि “वो”  “हमसे” ज़्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं. मारथा नुस्स्बाम (नुस्स्बाम २००५) ने इसका दस्तावेजीकरण भी किया है कि गुजरात नरसंहार में इसने कम महत्‍वपूर्ण भूमिका नहींनिभाई थी (नुस्‍स्‍बाम 2007). जैसा कि जैफरी और जैफरी ने दिखाया है कि ”कुछखतरनाक मिथकों” को ‘सहज बोध’ के भेष में प्रस्‍तुत करने वाली यह “भगवाजनसांख्यिकी” भारत में स्थायी परिघटना बन चुकी है। (जैफरी और जैफरी२००५:३२५-५९).
बेशक, मैं ऐसेखतों का आदी हो चुका हूँ जो मीडिया में कट्टरपंथी प्रचारकों को चुनौती देते हुएमेरे लेखों के ज़वाब में मुझसे इस्लाम कबूल करने, और अपना नाम बदल लेने के लिए कहते हैं,

eighteen − 8 =


हाल ही में


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