फासिस्ट मुहिम के खिलाफ प्रतिरोध जिलाए रखने वाले हिंदी लेखकों के स्वर भी इस बार सुनाई नहीं दिए। शायद पूंजीवादी मीडिया में प्रतिरोधी स्वर के लिए स्पेस भी नहीं था। ऐसे में यह जरूरी था कि इस स्थिति में उठ रहे कुछ सवालों के साथ अपने लेखकों के पास जाया जाए। यह परिचर्चा मोटे तौर पर तीन सवालों के इर्द-गिर्द केंद्रित रखी गई है। पहला यह कि वे बाबरी मस्जिद मसले को किस तरह देखते हैं, दूसरा, हाई कोर्ट के फैसले पर उनकी राय क्या है? आखिरी सवाल, हिंदी जगत में व्याप्त सन्नाटे और मीडिया, खासकर हिंदी मीडिया के रवैये को लेकर था।
सभी लेखकों के पास इतने कम समय और स्थान की सीमा के चलते, पहुंच पाना संभव नहीं था और कुछ लेखकों की अपनी मजबूरियां भी थीं। मसलन, कुंवरनारायण को परिचर्चा का मुद्दा और तीनों सवाल बताए गए तो उन्होंने मजबूरी जताई कि इन दिनों वे इंटरव्यू नहीं दे रहे हैं। नामवर सिंह को 22 सितंबर की शाम को फोन किया तो उन्होंने सवाल सुनने के बाद बताया कि उनके दांत में दर्द है और पांच दिनों तक वह बात करने की स्थिति में नहीं हैं। पांच दिन बाद उन्हें फिर फोन किया गया तो उन्होंने बताया कि अभी दांत में दर्द है और वे अगले पांच दिनों बाद बात कर सकते हैं। अशोक वाजपेयी व्यस्तता के कारण अंत तक समय नहीं निकाल पाये।
बौद्ध धर्म की सारी किताबें, मूर्तियां और स्मारक शंकराचार्य के अनुयायियों ने नष्ट कर डाले थे। यहां तक कि बुद्ध की जो भी मूर्तियां मिलती हैं, वे अफगानिस्तान, नेपाल, तिब्बत, रंगून आदि में तो मिलती हैं लेकिन हिंदुस्तान में बुद्ध की एक भी ऐसी मूर्ति नहीं मिलती जो खंडित न हो। इस तरह हम देखते हैं कि हिंदू कम कट्टर नहीं हैं। उन्होंने बाबरी मस्जिद को भी बाकायदा योजनाबद्ध ढंग से ढहा दिया था। कुछ हिंदुत्ववादी नेता भीड़ को रोकने के नाम पर मस्जिद से बाहर खड़े रहे थे और षडयंत्र के तहत महज आधा घंटे में उसे जमींदोज कर दिया गया था। उमा भारती उल्लास में मुरली मनोहर जोशी के कंधे पर बैठकर तस्वीरें खिंचवा रही थीं। उमा भारती और ऋ तंभरा के आग उगलते हुए भाषण बाकायदा रिकॉर्ड हैं। हाई कोर्ट के फैसले में इसका कोई जिक्र नहीं है। यह मानकर चला गया है कि जहां बीच का गुंबद था, वहीं नीचे राम का जन्म हुआ था। कोर्ट ने जिस तरह जमीन का बंटवारा किया है, उसमें बीच में रामलला का मंदिर है, एक तरफ राम चबूतरा है और एक तरफ सीता रसोई। कोर्ट द्वारा मुसलमानों को दिए गए हिस्से में मस्जिद बनाई भी जाती है तो वह राम चबूतरे और सीता रसोई के बीच में होगी। जाहिर है, रोज दंगे होंगे। एक तरह से यह जान-बूझकर किया गया लगता है कि बहुसंख्यक आतंक में दबकर मुसलमान खुद ही कहें कि भैया इस जगह को भी आप ही ले लें। यह फैसला निश्चय ही अन्यायपूर्ण, अवैध और अतार्किक है। यह तर्क और कानून के ऊपर आस्था की विजय है।
आखिर कोर्ट ने यह कैसे तय कर लिया कि राम कहां पैदा हुए थे? अयोध्या में ही राम के करीब 10 मंदिर ऐसे हैं जहां राम का जन्मस्थान होने का दावा किया जाता है। कोर्ट ने कानून पर आस्था को तरजीह दे दी है तो हर कहीं आस्था और अंधविश्वास को वैधता मिल जाएगी। सती, नर बलि आदि को भी परंपरा और आस्था के नाम पर सही ठहराया जा सकता है। फिर तो खाप-पंचायतें भी प्रेमी-प्रेमिकाओं के गले काटने को अपनी आस्था और परंपरा के आधार पर अपना अधिकार मानेंगी। ओझे, सयाने, झाड़-फूंक करने वाले औरतों को डायन बताकर क्यों नहीं पीटेंगे?
बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी तो हिंदुओं ने पाकिस्तान और बांग्लादेश में मंदिर तोड़े जाने का रोना रोया था। तरुण विजय आज भी गिनाते रहते हैं कि पाकिस्तान में कितनी मस्जिदें तोड़ी गईं और मुंबई में ब्लॉस्ट हुए। एक बात बताइए कि आप तो खुलेआम मस्जिद तोड़ दें और फिर चाहें कि दूसरा पक्ष कुछ भी न करे। हिंदुस्तान में हिंदुत्व की राजनीति करने वाले यह भी भूल जाते हैं कि उनकी वजह से पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदू कितने असुरक्षित हो जाते हैं। बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के उत्पीडऩ को आधार बनाकर तस्लीमा नसरीन ने लज्जा उपन्यास लिखा था तो पांचजन्य ने कहा था कि देखिए, मुसलमान कितने अत्याचारी हैं। लेकिन, हिंदुस्तान में भी बहुसंख्यकों के आतंक का ही नतीजा है कि बाबरी मस्जिद के ऐसे फैसले को लेकर मुसलमान चुप हैं। कुछ बूढ़े-बुजुर्ग जो लंबे समय से इस मसले में लगे हैं, सुप्रीम कोर्ट जा रहे हैं पर सच कहूं तो मुझे सुप्रीम कोर्ट से भी कोई बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। लेकिन क्या वाकई इस तरह मसले का निपटारा हो सकता है? हाई कोर्ट के फैसले ने भी शांति स्थापित करने के बजाय भीतर आग लगा दी है जो फिर भड़क सकती है।
एक बात यह भी कि बाबर के एक जनरल मीर बाक़ी ने जो मस्जिद बनवाई थी, वह तो आपने तोड़ दी लेकिन देश में आप क्या-क्या तोड़ेंगे? राम पर एक बहस में हिस्सा लेते हुए मैंने कहा कि राम ने लंका पर आक्रमण किया, रावण की बहन की नाक काटी। नाक काटने के मुहावरे का सीधा अर्थ है इज़्जत लेना। बाबर भी 1,800 सैनिकों के साथ हिंदुस्तान आया था। उसने भी यहां के लोगों को मिलाकर अपना साम्राज्य स्थापित किया। फिर राम और बाबर में अंतर क्या है, जो राम का इतना महत्व गाते रहते हैं? हालांकि राम सिर्फ मिथकीय चरित्र है और उसका कोई पौराणिक महत्व भी नहीं है। वाल्मीकि से पहले राम का कहीं जिक्र शायद ही मिलता हो।
हमारी राजनीति ने सांप्रदायिक समस्याओं को इतना दूषित और जटिल बना दिया है कि कोई गुजांइश नजरही नहीं आती है। लगता नहीं है कि हम लोगों की जिंदगी शांति से गुजर पाएगी। अशांति रहेगी, आतंकवादी विस्फोट होंगे। हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को इससे कोई मतलब नहीं है, उन्हें लाशों का ढेर लगाकर दिल्ली के सिंहासन पर बैठना है। हिंदुत्व की राजनीति संगठित है और हिंदू वोटों के लालच में यूपीए सरकार का रवैया भी नर्म है। कांग्रेस कोर्ट के फैसले का समर्थन ही कर रही है। रामभक्त कोर्ट में हो सकते हैं तो कांग्रेस में क्यों नहीं?
हिंदी लेखकों ने इस मसले पर जो कुछ भी लिखा, इस फैसले को आस्था और अंधविश्वास की विजय ही बताया है। भगवान सिंह, कृष्णदत्त पालीवाल जैसे कुछ लोगों को छोड़ दीजिए जिन्होंने हिंदुत्व की बात कही है। कुछ लेखकों का स्वर नर्म हो सकता है पर अधिकांश लेखक अपने स्टेंड पर कायम हैं। मुझे नहीं लगता कि हिंदी लेखकों में पुनरुत्थानवाद की कोई लहर चल रही है।
हम भारतीयों के मर्यादा पुरुष राम के नाम की अर्जित महिमा और गरिमा को जिस तरह एक राजनीतिक महत्वाकांक्षी खेमे ने राजनीति के सांस्कृतिक विज्ञापन की तरह रथयात्रा में सड़कों पर उतारा, वह भारतीय मानस को गुमराह करने की शर्मनाक कोशिश थी।
यह लोकतांत्रिक प्रणाली और धर्मनिरपेक्षता पर कीटनाशक रसायन से छिड़काव करने का प्रयास था जिसे वोट बैंक का आंकड़ा बढ़ाने के लिए किया गया था। जिसे नेतागण सांस्कृतिक आस्था का नाम देते हैं, वह दरअसल देश की हिंसक प्रवृत्तियों का ही प्रदर्शन था। लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्ष पक्ष के बदले सांप्रदायिकता को भड़का देने का प्रदर्शन। बरसों पहले जिस दिन रामलला के नाम पर बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराया गया, उस शाम इकट्ठे हुए दर्जनों लेखक इस आक्रामकता से घायल हुए एक-दूसरे को लाचारी से देख रहे थे। जैसे यह सदियों बाद पुराने आक्रमणकारियों को बहुत ही मामूली जवाब देने का दृश्य हो। विस्मयकारी था कि हम आजादी के पक्ष में विभाजन की त्रासदी को अब तक कुछ संतुलित कर चुके थे और यह एक बार फिर वोट के लिए नया विभाजन हो गया था। दुर्भाग्यपूर्ण प्रतिबद्धताएं, आक्रामक, हिंसात्मक, तत्वहीन मुद्दे जिन्हें राजनीतिक रूप दिया जा रहा था, धर्म के नाम पर सेंध लगाए एक बार फिर बंटवारा कर रहे थे। अगर यह राजनीतिक दल किसी अच्छी विज्ञापन एजेंसी को सांस्कृतिक उत्थान का काम सौंपता तो न मर्यादा पुरुष राम की छवि सड़कों पर रौंदी जाती और न रामलला के तथाकथित स्थान के नाम पर इस ढांचे को बर्बाद करने का अनाचार होता और वह भी धार्मिक आचार-विचार के नाम पर। इस बौद्धिक विश्लेषण से परे की शाम में मैं और कुर्रतुल एन हैदर आमने-सामने खड़े हैं, जैसे उन्होंने बंटवारा करवाया हो और बदले में हमने बाबरी मस्जिद को तोड़ गिराया हो। वह हमें दंगों की विरासत में मिली शाम थी।
अब बरसों बाद फिर अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की शाम है। भारत का नागरिक समाज अब इतना तो जानता है कि राम जन्मभूमि को लेकर जो नकारात्मक वैचारिक जगमग बनाया गया था, उसे अब समानता के लोकतांत्रिक मूल्यों के समक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता। राष्ट्र ने वयस्क भंगिमा में यह सिद्ध कर दिया मगर इस विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के तराजू में एक ओर तर्क और एक ओर आस्था रख दी गई। हम लोग एक बार फिर चिंतित हैं, इस बार माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय पर क्योंकि इस निर्णय से एक बार फिर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। इस विवाद को हल करने का न्यायालय ने जो भी मध्यस्थता का निर्देश देने को आस्था का सहारा लिया है, क्या वह सचमुच तर्क और आस्था के बीच एक नया प्रश्नचिह्न नहीं लगाता है? इस विवाद को हल करने की अपेक्षा रखते हुए यह भी क्यों जरूरी नहीं समझा गया कि जिस तरह बाबरी मस्जिद ढांचे का विध्वंस किया गया, वह अपराध की श्रेणी में आता है। उसे बिना किसी जुर्माने और हर्जाने के निर्णय में मौन रखा गया है। यह समानता और भारतीय लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनकूल नहीं।
यह हकीकत कि बाबरी ढांचा तोड़ा गया, एक गंभीर मामला है। कोई भी नागरिक किसी भी ढांचे को, छोटे- बड़े या पुराने खंडहर को जिस पर उसका स्वामित्व नहीं, तोड़ता है या नष्ट करता है तो यह कानून के मुताबिक अपराध है। जो यह करता है, वह दंड का भागी है। इस विवाद को सुलझाने और दो दलों में सामंजस्य बैठाने में इसे मौन रखना हम लोगों के खयाल में गंभीर मामला है। ऐसे लोकतंत्र में जो बहुसंख्यक, बहुधर्मी, बहुभाषी हो, फिर भी विभिन्नता से अपनी भौगोलिक सीमाओं में एकत्व का प्रतीक हो, उसमें आत्मकेंद्रित संकीर्णता से उठकर विभिन्न धर्म-समुदाय और सांस्कृतिक संस्कारों का आदर करने की लोकवृत्ति को पनपने देने का हममें साहस होना चाहिए।
बुद्धिजीवी बिरादरी भारत सरकार से यह उम्मीद करती है कि अयोध्या के इस विवाद को कुछ ऐसे सुलझाए कि राष्ट्र के नए लोकतांत्रिक मूल्यों की परंपरा में एक विश्वकेंद्र की स्थापना की प्रक्रिया शुरू करे। भारत के तमाम धर्म-समुदायों के साहित्य, दर्शन, विचार, अध्यात्म, चिंतन-मनन का यह एक ऐसा विराट संस्थान हो जो अपने स्थापत्य निर्माण में भी राष्ट्र के सभी धर्मों का प्रतीक हो।
यह फैसला एक कानूनी दायरे से बाहर जाकर सुलह-सपाटे की कोशिश जैसा लगता है। यह फैसला कई बार तथ्यों को अलग रखके आस्था को महत्व देते हुए दिया गया है। कई लोगों ने यह बात कही है और यह सही है कि इसके नतीजे दूरगामी हो सकते हैं। कोर्ट में अगर तथ्यों को अलग रखके आस्था के सवाल पर फैसले दिए जाते रहेंगे या भविष्य में दिए जाएंगे तो कई नई समस्याएं पैदा हो सकती हैं।
अगर इससे बातचीत के जरिए कोई नतीजा निकल रहा है और उस समस्या का समाधान हो जाए तो मुझे खुशी होगी। लेकिन मेरे ख्याल में यह फैसला जिस रूप में आया है, उसे लेकर सवाल उठते रहेंगे और उठ रहे हैं, उन पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। दोनों सम्प्रदायों को, इसके दोनों फरीकों को संतुष्ट करने वाला कोई समाधान बातचीत से निकल आए तो मुझे खुशी होगी लेकिन ऐसा कोई समाधान निकलेगा तो कोर्ट को एक तरफ रखकर ही निकलेगा।
यह सही है कि फैसला सुलह-सपाटे जैसा लगता है और इसे जिन मुद्दों को आधार बनाकर दिया गया है, वे सारे के सारे इतिहास के तथ्यों पर आधारित नहीं हैं। लेकिन मैं फिर अपनी बात को दोहराऊं कि अगर इससे प्रेरित होकर दोनों संप्रदायों के लोग बैठकर कोई समझौता कर लें और उससे झगड़े का कोई सर्वसंतोषी हल निकल आए तो जिन लोगों को प्रसन्नता होगी, उनमें मैं भी शामिल होऊंगा।
यह (बाबरी मस्जिद विवाद) राजनीतिक दलों द्वारा खड़ा किया गया मसला है। राजनीतिक दल धर्मांधता का फायदा उठाते रहे हैं। इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि यह एक राजनीतिक खेल है जिसे राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए खेलते रहे हैं।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ का फैसला एक प्रकार का समझौता है जो हालात को सामने रखते हुए लिया गया है ताकि शांति बनी रहे। इस फैसले में कानून का सहारा कम लिया गया है लेकिन अगर यह बाबरी मस्जिद तक सीमित रहे तो ठीक है। अगर यह प्रवृत्ति देश के दूसरे हिस्सों में भी फैलती है तो खतरनाक बात होगी। कानून कानून रहे, धर्म धर्म रहे, बेशक यही डेमोक्रे सी का आधार है वरना डेमोक्रेसी के लिए खतरा पैदा होगा। इसे बाबरी मस्जिद के संदर्भ में नहीं बल्कि व्यापक तौर पर देखा जाएगा।
देश में सांप्रदायिकता बहुत गहरे तक उतरी हुई है। हिंदू सांप्रदायिकता भी और मुस्लिम सांप्रदायिकता भी। खासकर हिंदू सांप्रदायिकता मतलब बहुसंख्यक सांप्रदायिकता ज्यादा खतरनाक है। मैं यह भी सोचता हूं कि यह फैसला न लिया जाता तो देश में क्या होता, जाने कितने दंगे होते। और क्या किया जा सकता था, मेरी समझ में नहीं आ पा रहा है। कोई क्लियर कट फैसला आता तो क्या बहुत नुकसान होता? दंगों में अंतत: साधारण लोग ही मरते हैं…पर अब तो बड़ों-बड़ों को मार दिया जा रहा है। राजनीतिक दलों से खासकर कांग्रेस-बीजेपी से कोई नहीं पूछता कि देश को यहां क्यों ला खड़ा किया, सब अदालत से ही पूछ रहे हैं।इस पूरे मसले को भावना से जोड़ दिया गया। यह काम राजनीतिक दलों ने किया, खासकर कांग्रेस-बीजेपी ने। ये देश को बर्बादी की ओर ले जा रहे हैं। इन्होंने देश को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। इन्होंने देश की एकता-अखंडता को भारी नुकसान पहुंचाया है।
अंदरूनी तौर पर देश पूरी तरह बांट दिया गया है – सांप्रदायिकता, जातिवाद, हेव्ज और हेव नॉट्स के आधार पर। देश में बहुत विस्फोटक स्थितियां हैं। इनमें से कुछ का इतिहास पुराना है, कुछ को बनाया-बढ़ाया गया। इन मसलों को एड्रेस नहीं किया गया। अब क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है।
सत्ता पर अधिकार के लिए करोड़ों रुपये खर्च करके जिस तरह की राजनीति और प्रपंच चल रहे हैं, उनमें हिंदी लेखकों का स्वर कहां सुनाई देता है? हिंदी के लेखक लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए एकजुट रहते आए हैं। इस बार बहुत ज्यादा नहीं बोला गया पर मुझे उनकी लोकतांत्रिक आस्था में पूरा यकीन है। मैं ऐसा नहीं मानता कि हिंदी के लेखक सांप्रदायिकता से प्रभावित हो रहे हैं।
हिंदी अखबारों की भूमिका शुरू से ही सवालों के घेरे में रही है। हिंदी के बहुत से अखबार सांप्रदायिक संकीर्ण शक्तियों के प्रभाव में हैं। उन्होंने इस बार भी जो किया, वह उनके लिए कुछ नया नहीं है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक ऐसा निर्णय लिया जो हो सकता है कि लोगों को कानूनी दृष्टि से ठीक न लग रहा हो, लेकिन कांग्रेस के लोगों ने बाद में जो वक्तव्य दिए, वे पहले क्यों नहीं दे रहे थे? निर्णय आने के बाद कहा जाने लगा कि यह कानून के हिसाब से नहीं है, वगैरह-वगैरह। सवाल यह है कि आप देश में समानता और शांति चाहते हैं या कानून? कानून मनुष्य के लिए है या मनुष्य कानून के लिए? कानून का एक काम संवाद की स्थिति पैदा करना भी है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कानून व समाज की नकारात्मक प्रवृत्तियों के बीच समन्वय स्थापित करने के अपने दायित्व का अच्छे ढंग से निर्वाह किया है। यहां मन्दिर है, उसके पास मस्जिद नहीं चाहिए या मस्जिद के आसपास मन्दिर नहीं बनना चाहिए, ये सब सवाल उठ रहे हैं। मैं समझता हूं कि अच्छा है कि बातचीत की शुरुआत है। लेकिन मैं नहीं समझता कि सुप्रीम कोर्ट एक ऐसे निर्णय को जो मनुष्य और शांति के हित में हो, बदलेगा। कानून इसलिए नहीं कि यहां देश में दंगा कराए या लोगों की हत्याएं कराए।
मैं समझता हूं कि इस निर्णय पर राजनीति करने की कोशिश की जा रही है। जैसे, मुलायम सिंह ने पहले कहा कि अच्छा निर्णय है, बाद में कहा कि मुसलमानों को ठग लिया गया। कम्युनिस्ट ऐसी बातें कहने लगे, कांग्रेसी कहने लगे। इस तरह आप देश में समन्वय कैसे स्थापित रखेंगे? क्या राजनीति का मतलब सिर्फ वोट लेना है, मनुष्य के मनुष्य के संबंधों से कोई लेना-देना नहीं है?
वोट की राजनीति बहुत गंदी राजनीति है। देश के हित को न सोचकर लोग अपने और अपनी पार्टी के हित में सोचते हैं। गांधी ने हिन्द स्वराज में यह लिखा है कि पार्लियामेंट या संसद जो भी हैं, बिल्कुल वेश्या की तरह हैं जो अपने बारे में सोचती है। हमारे राजनीतिज्ञ यही तो कर रहे हैं।
संघ परिवार के लोग देश के हित में काम नहीं कर रहे हैं। इस तरह की बातें कर पड़ोसी मुल्क को उत्साहित कर रहे हैं। मैं इसे स्वस्थ परंपरा नहीं मानता। अगर ऐसी बातें संत कर रहे हैं तो मैं उन्हें भी संत नहीं डिक्टेटर मानता हूं।
हिंदी लेखक कुछ नहीं करता, वह सिर्फ दस्तखत मीर है। प्रोटेस्ट फाइल कर देते हैं, बस। अभी राय प्रकरण में क्या किया? मैं समझता हूं कि मुसलमानों का रोल ज्यादा रचनात्मक है। 90 साल का बूढ़ा पक्षकार बातचीत के लिए भागदौड़ करता है। सुप्रीम कोर्ट जाना उनका अधिकार है। लेकिन जहां तक कम्युनिस्ट चाहते हैं कि निर्णय का एक-एक शब्द कानून के मद्देनजर हो तो वे बताएं कि स्टालिन रूस में किस कानून के आधार पर दुनिया भर के लोगों को मारते थे। क्या जो हिटलर कर रहा था, वह कानून था? कानून का मतलब है सबको समान अधिकार यानी सब समान रूप से रह सकें। यहां तो यह हाल है कि आततातियों का अधिकार हो जाए तो झुकते चले जाएंगे और आज़ादी हो तो कानून-कानून चिल्लाएंगे। अफगानिस्तान में कुछ समय पहले ही बौद्ध स्मारक तोड़े गए। हिंदुस्तान में एक समय आतताइयों ने जो मुसलमान थे, मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनवाईं, पिछड़ों के साथ ज्यादती की, तब हमने क्या किया? तब तो हम खुद को सुरक्षित समझते रहे। ज्यादातर हिंदुओं को समानता का अधिकार नहीं दिया गया, इसलिए धर्म परिवर्तन हुआ।
मैं नहीं समझता कि अतीत की इस तरह की बातों को अब कोई मुद्दा बनाया जाना चाहिए। बाबरी मस्जिद का वह स्ट्रक्चर बाबर ने, उसके मंत्री ने बनवाया, वह एक मोन्युमेंट की तरह था। उसे तोडऩा निश्चय ही अस्वस्थ मानसिकता का परिचायक था।
राम अयोध्या में पैदा हुए थे, यह बेशक आस्था का सवाल है। लेकिन, इस आधार पर कम्युनिस्ट कहते हैं कि कोर्ट का फैसला कानून पर आस्था को तरजीह है तो उन्हें मालूम होना चाहिए कि आस्था तो कानून में भी रखनी पड़ेगी वर्ना कानून का भी क्या मतलब रह जाता है।
मुझे नहीं लगता कि कोर्ट के फैसले से बाबरी मस्जिद विध्वंस के औचित्य या मुसलमानों की पराजय जैसी कोई अनुगूंज निकलती है। यह फैसला तो डेमोक्रेसी की सबसे बड़ी ताकत संवाद और भाईचारे की स्थिति पैदा करता है।
गुजरात नरसंहार के दौरान गुजरात के कई लोगों (वे लोग जो दंगों का शिकार हो रहे थे, तबाह किए जा रहे थे) ने कहा कि हमें यह भी मालूम नहीं था कि बाबरी मस्जिद क्या है, कहां पर है। हिंदुत्ववादी और सांप्रदायिक शक्तियों ने, जो कि दरअसल राष्ट्रविरोधी हैं, एक नामालूम-सी जगह में स्थित एक नामालूम-सी मस्जिद को एक इतना बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना दिया कि लगभग एक दशक तक उत्तर भारत की पूरी राजनीति उसके इर्द-गिर्द सिमट आई। उसे एक ऐसे प्रतीक के रूप में निर्मित किया गया कि जैसे उसकी उपस्थिति हिंदुओं का अपमान हो। इस तरह उसे एक नकली और छद्म प्रतिष्ठा का विषय बना दिया गया। संघ परिवार जिसके कई मुखौटों वाले ‘वैध’-अवैध संगठन हैं, ने इस प्रतीक के खिलाफ एक उन्माद की रचना की जिसका उद्देश्य सिर्फ सत्ता में आना था। और अंतत: उसे ढहा दिया गया जो कि निश्चय ही अपराध था। इस अपराध के लिए संघ परिवार के किसी भी नेता ने न कोई ग्लानि व्यक्त की और न पश्चाताप जताया। न उन लोगों से क्षमा-याचना की गई जो इस मस्जिद से किसी न किसी रूप से जुड़े हुए थे।
लालकृष्ण आडवाणी, जो कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के असली सूत्रधार हैं, ने एक हल्का-सा खेद जरूर व्यक्त किया और यह खेद भी एक छद्म था। अंग्रेजी मीडिया में इस घटना के सैकड़ों साक्ष्य और दस्तावेज मौजूद हैं जो बताते हैं कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती जैसे लोगों के सक्रिय समर्थन और उकसावे के कारण हुआ। संघ परिवार के दूसरे संगठनों के बजाय ये लोग इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार इसलिए हैं कि वे इस देश के संविधान से बंधे हुए थे। इस विध्वंस के बाद जो कुछ हुआ, उसमें उन लोगों की भी तबाही हुई जिन्हें यह मालूम नहीं था कि अयोध्या में कोई बाबरी मस्जिद है कि नहीं। एक अमेरिकी इतिहासकार हॉवर्ड जिन की एक उक्ति है कि निर्दोषों की हत्या करना आतंकवाद है। इस तरह बाबरी मस्जिद का विध्वंस हिंदू आतंकवादियों का काम था।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले पर राय उन तमाम आलोचनाओं में दिखाई देती है जो बुद्धिजीवियों ने प्रकट की हैं। यह ऐसा विचित्र फैसला है जो सबको मान्य होने के नाम पर दिया गया पर, जो किसी को मान्य नहीं है। मीडिया और इस देश का नया मध्यवर्ग इसे इस रूप में भी देख रहा है कि फैसले से अशांति नहीं फैली लेकिन इस शांति का क्या अर्थ है? यह एक निष्फल शांति है। जहां तक मुसलमानों का सवाल है, उनके लिए अब इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि वहां अब क्या बनता है, वहां कोई मंदिर बनता है, मस्जिद बनती है या कि उस जगह का क्या होता है। उनके दिल में अभी तक यह जख्म है कि आखिर बाबरी मस्जिद को क्यों तोड़ा गया। दरअसल, उसे एक बहुत बड़े प्रतीक में बदलकर, उसका मुसलमानों का अपमान करने के प्रतीक के रूप में ध्वंस किया गया था। इसका एक दुखद पहलू यह है कि जो मुस्लिम बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपनी निष्ठा के कारण हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों की कट्टरता और संकीर्णता से यथासंभव मोर्चा लेते रहे हैं, वे इस फैसले से बेहद हताश हुए हैं। अगर यही न्याय है तो यह एक बहुसंख्यक न्याय है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के तीन न्यायाधीशों में से एक हनुमान के भक्त बताए जाते हैं और वह इतिहास, पुरातत्व, विधि और न्याय के तथ्यों और सिद्धांतों की अनदेखी करके यह निर्णय देते हैं कि वहां मंदिर था। संभव है कि इतिहास में कभी वहां कोई मंदिर रहा होगा तो यह सिर्फ एक अनुमान ही हो सकता है। और अगर यह सच भी हो तो इस देश के अत्यंत प्राचीन इतिहास के भूगर्भ में क्या-क्या दबा हुआ है, किस-किस तरह के ढांचे दबे हुए हैं और किन ढांचों के ऊपर क्या निर्मित हुआ, इसका कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता। मसलन, चौथी शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेन सांग अपनी यात्रा के दौरान अयोध्या भी गया था और अपनी डायरी में अयोध्या का जिक्र करते हुए वह लिखता है कि अयोध्या बौद्ध धर्म का एक बड़ा केंद्र थी जहां कम से कम 500 विहार थे और विधर्मियों की संख्या नगण्य थी। सवाल यह है कि तत्कालीन विधर्मी कौन थे? वे मुसलमान नहीं बल्कि सनातन धर्मी या वैष्णव ही रहे होंगे। कहने का अर्थ यह है कि इस देश के भूगर्भ में जितनी मिट्टी है, उतना ही इतिहास है। अगर अयोध्या की मस्जिद के नीचे कोई मंदिर था तो उससे बड़ा सच यह है कि वहां एक मस्जिद थी। विद्वान न्यायाधीशों ने इस पर कोई टिप्पणी क्यों नहीं की कि उस मस्जिद को क्यों तोड़ा गया?
एक और पहलू यह है कि न्यायालय का फैसला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की जिस रिपोर्ट का जिक्र करता है, उसके निष्कर्षों को लेकर देश के तमाम जाने-माने और अंतर्राष्ट्र्रीय ख्याति के इतिहासकार गंभीर सवाल उठाते रहे हैं। अयोध्या की यह खुदाई एनडीए शासन के दौरान की गई थी और उसमें उन्हीं पुरातत्वविदों को रखा गया जो संघ परिवार के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थक थे। उन दिनों इस पुरातत्व दल द्वारा खुदाई में पाई गई चीजों को मीडिया में जोर-शोर से प्रचारित किया गया लेकिन इनकी विश्वसनीयता को लेकर उस समय भी सवाल उठाए गए थे। इससे पहले बी.बी. लाल द्वारा की गई खुदाई की प्रकृति भी कुछ इसी ढंग की थी लेकिन उसमें कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं दिए गए थे। अयोध्या की खुदाई के दौरान वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष धारा के इतिहासकार सिर्फ पर्यवेक्षक के रूप में शामिल थे और उनकी कोई आधिकारिक उपस्थिति नहीं थी। यानी, संघ परिवार और विश्व हिंदू परिषद वगैरह को आधिकारिक रूप से पुरातत्वविदों की सेवा उपलब्ध थी जबकि बाबरी मस्जिद मुस्लिम एक्शन क मेटी के पास ऐसे कोई पुरातत्वविद नहीं थे। फैसले में जस्टिस शर्मा का कहना था कि धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों ने अदालत में कोई सुनिश्चत रवैया नहीं अपनाया लेकिन यह वे इसलिए नहीं अपना सकते थे क्योंकि उनकी हैसियत आधिकारिक न होकर स्वतंत्र जांचकर्ताओं की थी। वे खुदाई की प्रक्रिया में शामिल नहीं थे। कोई भी बौद्धिक अनुशासन इसकी अनुमति नहीं देता कि अप्रमाणिक ढंग से कोई बात कही जाए। यह इतिहासकारों द्वारा अपने क्षेत्र के साथ गैर ईमानदारी होती। हैरत की बात यह है कि अदालत ने सरकारी पुरातत्वविदों के संदिग्ध निष्कर्षों को प्रमाण के तौर पर मान लिया और स्वतंत्र इतिहासकारों की राय को कतई अनदेखा किया।
न्यायाधीश शर्मा के फैसले में यह प्रवचन भी दिया गया है कि बाबरी मस्जिद इस्लाम के नियमों के आधार पर नहीं बनी थी क्योंकि उसमें मीनार नहीं थी। इस देश में हजारों ऐसी छोटी-छोटी मस्जिदें होंगी, जिनमें कोई मीनार नहीं है।
यह एक बड़ा विरोधाभास है कि बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार पर बहुत सारी कविताएं और कुछ कहानियां भी लिखी गई थीं। अब अदालत के इस फैसले के बाद जन संस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ का साझा बयान जरूर आया है जो यह उम्मीद जताता है कि हिंदी में राजनीतिक और प्रतिरोधात्मक चेतना अभी जीवित है। लेकिन इस फैसले पर ज्यादातर खामोशी ही रही, यह दुखद है। लेकिन मैं इसे साहित्य पर भूमंडलीकरण और बाजारवाद के दुष्प्रभावों के नतीजे के तौर पर देखता हूं। हिंदी की नई पीढ़ी इस समय देश के नए और संपन्न होते मध्यवर्गीय जीवन, बाजार की चमक-दमक, कम्प्यूटर-मोबाइल तंत्र और उपभोक्तावाद के प्रति बहुत आकर्षित है। पूरा साहित्यिक परिदृश्य किसी कस्बे में चाय की उस दुकान की तरह लगता है जिसमें एक तख्ती पर लिखा होता है कि यहां राजनीतिक बातें करना मना है। इसमें हिंदी के अखबारों का अपना भीषण योगदान है जो इस समय किसी भी वैकल्पिक राजनीति या यथास्थितिवाद के विरोध में उठ रहे किसी भी कदम को अपने पन्नों पर जगह नहीं देते। वे एक भीषण सुख-भ्रांति में जी रहे हैं क्योंकि उनका मुनाफा बढ़ रहा है। जरा गौर करें, अदालती फैसले के अगले दिन हिंदी के सभी बड़े अखबारों में इस तरह के बैनर छपे थे कि रामलला वहीं विराजमान रहेंगे, सारी भूमि राम की आदि-आदि। हिंदी मीडिया ने यह लिखने की जहमत भी नहीं उठाई कि जमीन का जो बंटवारा हुआ है, उसके मुताबिक राम का तथाकथित भव्य मंदिर कैसे बनेगा। संघ परिवार ने इस खंडित फैसले को राम का मन्दिर बनाने के आदेश की तरह प्रचारित किया और अखबारों ने इसे बिना किसी आलोचना के प्रचारित किया। दरअसल, पूरे अयोध्या कांड पर हिंदी मीडिया का रवैया बेहद शर्मनाक और निंदनीय रहा है।
बाबरी मस्जिद मसला पूरी तरह बनाया गया, राजनीतिक मसला है। वरना मंदिर कहां है, मस्जिद कहां है, इस पर क्या लडऩा? बहुत सारी जगहों पर अलग-अलग धर्मों के स्थल एक जगह हैं। हमारे यहां बुंदेलखंड में वहीं मंदिर भी हैं, वहीं मस्जिद भी, वहां तो लड़ाई नहीं हो रही। अगर कोई लाभ मिलने वाले होंगे तो वहां भी लड़ाई होने लगेगी। मुझे तो कभी भी इस मुद्दे में कोई दम दिखाई नहीं दिया लेकिन देश की और बहुत सारी वास्तविक समस्याओं से मुंह फेरकर इसे खड़ा किया गया है। जनसंख्या वृद्धि, खेती पर संकट जैसे बहुत सारे मसले हैं, उन पर बातचीत को तुरंत निपटा देते हैं लेकिन मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगते हैं।
हाई कोर्ट का फैसला फैसला बहुत बच-बचकर लिया गया। इस फैसले से स्पष्ट होता है कि कारसेवकों, संघियों से ज्यादा डर था। इसलिए फैसला उनके पक्ष में गया। जब दंगे होते हैं तो ज्यादातर दोष मुसलमानों को दिया जाता है और शिकार भी वही होते हैं। यह इतना सावधानीपूर्वक लिया गया फैसला है। आप कहेंगे कि इसमें तो मुसलमान जज भी शामिल था। लेकिन उसकी आवाज कितनी थी? जब दो लोग हिन्दू हैं और एक मुस्लिम है तो अपने आप ही एक पलड़ा भारी हो गया। अगर वोटिंग भी कर लें तो पलड़ा वही भारी है, न! इसीलिए ही, अगर बराबर का बंटवारा होता तो आगे यह मामला न चलता, सुप्रीम कोर्ट न जाता। अगर मुस्लिमों को एक इंच भी ज्यादा जमीन मिल जाती तो जरूर दंगे हो जाते। फिर दलील भी यह है कि भई, हिंदुस्तान में हो तो यह तो होना ही है, कल किसी मुस्लिम देश में हो तो मुसलमानों के पक्ष में जाएगा। कहा जा रहा है कि ऐसा तो होता ही है। साफ है कि समस्या के निपटारे के लिए यह सही फैसला नहीं है।
हिंदी लेखकों में इन दिनों कितनी ईमानदारी बची रह गई है? लेकिन जिनको विरोध करना है, वे कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि बिल्कुल ही सन्नाटा है, जो चुप रहना चाहते हैं, वे चुप हैं। चूंकि फैस??

giriraj kishor ke lekh ke sandharbh mein
babri masjid vivad ke bhane e stalin ko bhi khinc laye aur communist netikta ki bat karte hue stalin ke uper aaroop lagaye
lekin hajaro logon ke hatyari burjua sansadiya wyawastha par jab baat karni hogi tab we satta pach ke sath khade honge aur apni baat ko sirf so caaled poonjiwadi democracy ke dayre mein kahenge
raha sawal stalin ke katle aam ko to parjivi wargo ki jamat ko muft mein roti todne ka koi haq nahi hai cahe wah kishor ji jaisa so called budhijiwi hi kyon na ho
russia mein budhijiwi bhi kaam karte they
yadavji ne likha hai k Ram ne Ravan ki lanka par akraman kiya aur Babar ne Bharat par hamla kiya ye dono ek barabar hai !
par kya dono ke akraman karne ki paristhitiya saman thi?
shayad ramayan ki puri katha nahi padhi,
Mahoday, Ram ne Sita mata ko Chhudane k liye lanka par akraman kiya tha aur akraman karne se pale v samarpan karne ka sandesh bheja tha, na manane par Akraman kiya aur sita mata ko chhudane k baad Lanka k rajpat Vibhishan ko shuop diya tha jo k Ravan ka hi saga bhai tha.
Jabki Muslim Bharat ko lootne ke irade se aaye the aur yaha ki sampannata dekhkar yahi jabarjasti baith gaya.
kripya do ghatnao ka milan karte samay saath ki ghatnao k sandarbh ko v dhyan me rakhe.
BABRI MASJID PAR RIYAL ME MUSLMANO KA HAK HAI KAI LOGO NE MILKAR ISE VIVADIT BANA DIYA HAI