बर्बरता के विरुद्ध

धर्म, सांप्रदायिकता और धर्म-निरपेक्षता : गोरख पाण्‍डेय (भाग दो)

August 3rd, 2009  |  Published in Uncategorized  |  3 Comments

‘धर्म-निरपेक्षता’ शब्‍द को उसके असली अर्थ में समझने की ज़रूरत आज पहले से ज्‍यादा मौजूद हैं। चूंकि इसी शब्‍द की आड़ में खोखली धर्म-निरपेक्षता गढ़ी और इस्‍तेमाल की गई वहीं सांप्रदायिकता के विरोध के लिए भी इसी गत्ते की तलवार का इस्‍तेमाल तथाकथित प्रगतिशील तबका करता आ रहा है। नतीजे भी सामने हैं जबकि आज सांप्रदायिकता के विरोध का कोई सशक्‍त वैचारिक-राजनीतिक-सामाजिक आधार मौजूद नहीं है। कल की पोस्‍ट की सबसे जरूरी बात हमें यह समझ आई कि ”धर्म-निरपेक्षता राज्‍य का एक गुण होना चाहिए।’ राज्‍य के इस मूल चरित्र पर ध्‍यान देने की जरूरत है। इस मूल बात को समझते हुए प्रस्‍तुत है लेख के इस हिस्‍से का दूसरा और अंतिम भाग। इस लेख की अहमियत की वजह से हम इसे जल्‍द ही पूरा प्रस्‍तुत करेंगे, साथ ही इस मुद्दे पर तो बात जारी ही रहेगी…



धर्म, सांप्रदायिकता और धर्म-निरपेक्षता


— गोरख पाण्‍डेय


इस स्थिति का फायदा उठा कर कुछ लोग धर्म-निरपेक्षता की जरूरत से ही इनकार करने लगे हैं। वे कहते हैं कि भारत धर्म और सम्‍प्रदायों का देश है और धर्म-निरपेक्षता यहां की प्रकृति के अनुकूल नहीं है। उनके तर्क पर चला जाए तो हमें यूरोप से प्राप्‍त आधुनिक विज्ञान, तकनालाजी तथा लोकतंत्र और समाजवाद की धारणाओं से भी मुक्‍त हो जाना चाहिए। ऐसी हालत में जो हमारे पास बच जायेगा, वह वर्गों और वर्णों में विभाजित, मध्‍य-युगीन और अस्‍पृश्‍यता के काले धब्‍बों से भरा जर्जर समाज होगा या फिर हिन्‍दू साम्‍प्रदायिकता के वर्चस्‍व से नियंत्रित एक ऐसा राज्‍य-तंत्र जो अपने मूल आशय में फासिज्‍म का भारतीय रूप होगा। साम्‍प्रदायिकता की विघटनकारी परिणतियों से परिचित कोई भी व्‍यक्ति इन दोनों विकल्‍पों को स्‍वीकार नहीं करेगा।


जहां तक परम्‍परा का सवाल है, भारत में धार्मिक और साम्‍प्रदायिक चिन्‍तन के अलावा, और उसके खिलाफ, बुद्धिवादी और भौतिकवादी चिनतन की एक मजबूत परंपरा रही है। बुद्ध के समय में चिन्‍तन के तमाम रूप सक्रिय थे और अधिकांश बुद्धिवादी तथा भौतिकवादी थे। खुद बुद्ध ने ईश्‍वर की धारणा का निषेध करके आत्‍मवादी चिंतन पर गंभीर प्रहार किया। चाणक्‍य का प्रसिद्ध अर्थशास्‍त्र अपनी मूल संरचना में एक धर्म-निरपेक्ष कृति है। बाद में मुगल बादशाह अकबर ने एक खास तरह की धर्म-निरपेक्षता बरतने की कोशिश की। असली मुद्दा यह है कि आप परम्‍परा में से क्‍या चुनते हैं और वर्तमान में आपका पक्ष क्‍या है?


अब समय आ गया है कि धर्म-निरपेक्षता को उसके स‍ही परिप्रेक्ष्‍य में देखा जाये और जनता की एकता तथा उसके जनवादी आन्‍दोलन के सामने खतरा बन रही तानाशाही और सांप्रदायिकता की शक्तियों का मुकाबला किया जाए।

3 Responses

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  1. ali says:

    सहमत !

    ….किन्तु क्या आपको लगता है कि लिपिबद्ध संविधान के बाहर का राजकाज / नौकरशाही और ज्यादातर राजनैतिक दल इस संवैधानिक मर्यादा से अनुशासित हैं ?
    जो दल संविधान का सीधे सीधे विरोध नहीं कर सकते वे शाब्दिक भ्रमजाल खडा करते हैं ये बात तो समझ में आती है ! लेकिन जो दल धर्मनिरपेक्षता के एलिमेंट को संविधान मे सम्मिलित करवा पाने के नाम पर श्रेय आकांक्षी हैं उनका क्या ?
    जब निर्वाचन के समय टिकट बटवारे में ही जाति / धर्म का बाहुल्य मायने रखता हो तो ..?

    मित्र , शाब्दिक / सैद्धांतिक रूप में इस धारणा के संविधान में सम्मिलित होने से क्या फर्क पड़ता है जबकि राजनेताओं / राजनैतिक दलों के व्यवहार में ही इसकी अवहेलना / सुनियोजित पाखंड निहित हो !

    व्यक्तिगत रूप से मैं भी सहमत हूँ कि विश्व के प्रत्येक जनकल्याणकारी राष्ट्र को केवल और केवल धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक राज्य ही होना चाहिए ! धर्माधारित राष्ट्र की संकल्पना ही इंसानियत विरोधी है !

  2. सच्ची बात है। इस आलेख से शतप्रतिशत सहमत हूँ।

  3. समय says:

    भई यहां तो अच्छा सा कुछ चल रहा है।
    गोरख पाण्डे़य जी भी पधार गये हैं।

    और गोरखधंधे वाले भी गायब हैं।

    बेहतर बात।

    अब अलि जी, इस ढांचे से कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रहे हैं।
    घोषित रूप से धर्मनिरपेक्षता की झुन्झुनी तो है।
    भई यह प्रगतिशीलता बची हुई है, गनीमत है।

    इससे ही कई फ़ासीवादी हौसले पस्त होते हैं।

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